शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें...: ज़फ़र


सन १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र ने जननायक की भूमिका निभाई थी. ज़फर एक महान शायर भी थे. इस बुजुर्ग बादशाह ने अपनी पार्थिव देह दिल्ली की गोद में दफ़न कराने की इच्छा जताई थी. लेकिन मौत आई भी तो रंगून की जेल में. ज़फर की यह इच्छा पूरी करने का बीड़ा उठाया है लन्दन में रह रहे प्रवासी राजनीतिज्ञ एवं साहित्यकार डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने. उन्होंने इसके लिए बाकायदा एक अभियान छेड़ रखा है. इसी कड़ी में प्रकाशित हुई है यह पुस्तक -'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र'. प्रसिद्ध कवि-लेखक आलोक भट्टाचार्य ने इसकी समीक्षा विशेष तौर पर हमारे लिए की है. यह आख़िरी कड़ी है.

(पिछली कड़ी से जारी)... इन लेखों में एक मिर्ज़ा ग़ालिब लिखित 'दस्तंबू' पर आधारित लेख भी है. 'दस्तंबू' ग़ालिब द्वारा १८५७ की क्रान्ति के विफल हो जाने के बाद अंग्रेजों द्वारा दिल्ली के क्रूर क़त्ल-ए-आम और लूट-पाट का आंखों देखा वर्णन है.

पुस्तक ५ अध्यायों में विभाजित है. पृष्ठ ५ से ३६ तक संक्षिप्त हिस्सों में संदेश, समर्पण, श्रद्धा-सुमन, भूमिका आदि औपचारिकताएं हैं, लेकिन ये भी अत्यन्त पठनीय और उपयोगी हैं. पुस्तक पूर्व सांसद और 'फ्रीडम फाइटर्स एसोसिएशन' के संस्थापक अध्यक्ष पद्मभूषण शशिभूषण जी को समर्पित है. शुभकामना संदेशों में प्रमुख है ब्रिटिश सांसद वीरेन्द्र शर्मा (ईलिंग साउदोल संसद, हाउस ऑफ़ कामंस के सदस्य) का संदेश. डॉक्टर विद्यासागर आनंद की भूमिका भी अवश्य पठनीय है.

'ज़फ़र की पुकार' शीर्षक से जो दूसरा अध्याय है, यही वास्तव में पुस्तक का मूल अंश है. इसमें बहादुरशाह ज़फ़र, १८५७ की क्रान्ति, विभिन्न सेनानी, शहीदों आदि से सम्बंधित 31 लेख हैं जो हमें कई अनजान पहलुओं से परिचित कराते हैं. इनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू का मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को लिखा वह पत्र भी शामिल है जिसमें वह बहादुर शाह ज़फ़र की भारतीयता, उनकी महत्ता बताने के साथ-साथ ज़फ़र के पार्थिव अवशेषों को रंगून से लाकर दिल्ली में समाधिस्थ करने की जरूरत पर ज़ोर देते हैं.

हमें यह याद रखना चाहिए कि दिल्ली की मिट्टी में दफ़न होने की इच्छा बहादुरशाह ज़फ़र की तो थी ही, उनकी इस इच्छा की पूर्ति की दिशा में पंडित नेहरू ने पहल भी की थी. ध्यान देने की बात यह है कि भारतीय आज़ादी के निराले योद्धा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की भी यही इच्छा थी; ज़फ़र के अवशेष दिल्ली ही लाए जाएँ. 'आज़ाद हिंद फौज़' के गठन की प्रक्रिया में ही जब नेताजी रंगून गए, तो ज़फर की समाधि पर फूल चढ़ाते हुए उन्होंने भी यही इच्छा जाहिर की, और ज़फर की समाधि से ही नेताजी ने अपना लोकप्रियतम, उत्तेजक, नसों में खून की गति तेज कर देने वाला नारा लगाया- 'दिल्ली चलो.'

एक अध्याय विभिन्न शायरों द्वारा ज़फ़र को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए रची गई काव्य-रचनाओं का है- 'काव्य-श्रद्धा.' और अन्तिम अध्याय है ज़फ़र की काव्य रचनाओं में से चुनी गईं कुछ रचनाएं- गज़लें, नग्मे, रुबाइयात वगैरह. ज़फ़र एक महान शायर थे. उनकी शायरी में उनकी राजनीतिक विफलता का दुःख तो है ही, अंग्रेजों द्वारा तीन बेटों की हत्या किए जाने का दारुण दुःख, अपनी मार्मिक असहायता, निकटतम मित्रों, बेगमों, रिश्तेदारों की गद्दारी आदि से उपजी भीषण हताशा भी है, लेकिन इन सबके बावजूद साम्प्रदायिक सौहार्द्र, उदार मानवतावाद, भारत की मिट्टी से उनका प्रेम, प्रकृति का असीम सौन्दर्य, ईश्वर के प्रति उनकी आस्था, ईंट-पत्थर के मन्दिर-मस्जिदों की बजाए मनुष्य के ह्रदय के मन्दिर-मसाजिद पर ज्यादा विश्वास जैसी ज़फ़र की अनेक मानवीय-चारित्रिक खूबियाँ भी बड़ी ही शिद्दत के साथ आयी हैं.

उर्दू के अनन्य सेवक 'माडर्न पब्लिशिंग हाउस', नई दिल्ली के स्वत्वाधिकारी प्रेमगोपाल मित्तल अवश्य ही इस अत्यन्त जरूरी, उपयोगी, एक राष्ट्रीय अभियान को गति देने वाली इस दस्तावेजी और विचारोत्तेजक पुस्तक को छापने के कारण प्रशंसा और धन्यवाद के पात्र हैं. पुस्तक तथा पुस्तक के सम्पादक के विषय में मित्तल जी के विचार फ्लैप पर दिए गए हैं. इस पुस्तक के संयोजन एवं प्रकाशन के पीछे जो भावना है वह प्रणम्य है. दो ही चार हिन्दी विद्वानों के अलावा इस पुस्तक के शेष सभी लेखक मुख्यतः उर्दू के विद्वान लेखक हैं. लेकिन उनकी इस महती कृति को हिन्दी पाठकों का आदर और स्नेह अवश्य मिलेगा.

अंत में पुस्तक के प्रकाशन के विषय में कुछ बातें. बहुत ही अच्छे कागज़ पर उत्कृष्ट छपाई, उत्कृष्ट बंधाई के साथ यह पुस्तक भीतर के रंगीन और ब्लैक एंड व्हाइट २९ अमूल्य छाया-चित्रों के साथ-साथ बेहद सुंदर मुखपृष्ठ के लिए पाठकों को अत्यन्त प्रिय लगेगी.

लेकिन पुस्तक पढ़ते समय एक कमी पाठकों को लगातार खटकती रहती है. वह है प्रूफ़ की अशुद्धियाँ. ऐसे प्रामाणिक दस्तावेजी ग्रन्थ में प्रूफ़ की अशुद्धियाँ होना ही नहीं चाहिए. जबकि इसमें इतनी ज्यादा हैं कि खीझ होती है. उद्धरण को उद्धर्न, लगन को लग्न, ऑफसेट को अफ्सेट, प्रेस को प्रैस, सेनानी को सैनानी, फ़ारसी को फार्सी पढ़ते हुए कोफ़्त होती है. ब्रिटिश सांसद का नाम छापा है विरेंद्र शर्मा! यदि वह स्वयं अपने नाम के हिज्जे इस तरह लिखते हों तो आपत्ति नहीं, उनकी मर्जी है, लेकिन भाषा में विरेंद्र तो होता नहीं; वीरेन्द्र ही होता है.

फ्लैप पर जो सामग्री है, उसके अंत में 'इस पुस्तक में' को वाक्य की शुरुआत में लिख दिए जाने के बाद भी फिर वाक्य के अंत में लिखा गया है, जो सही नहीं है. और तो और प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का वह अत्यन्त प्रसिद्ध बहादुर शाह ज़फ़र का शेर- 'गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की' ग़लत छापा गया है. तख्त-ए-लन्दन की जगह 'तब तो लन्दन' छपा है. विश्वास है पुस्तक के अगले संस्करण में प्रूफ़ की तमाम भूलें सुधार ली जाएँगी. दस्तावेजी पाठ में हिज्जे की गलतियाँ भ्रम पैदा करती हैं. अतः उन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए.

पुस्तक: '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र', सम्पादक: डॉक्टर विद्यासागर आनंद, प्रकाशक: माडर्न पब्लिशिंग हाउस, ९ गोला मार्केट, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२. पृष्ठ ५७६, मूल्य ६०० रूपए.

2 टिप्‍पणियां:

  1. "कितना है बदनसीब ज़फर दफ़्न के लिए...." हम भी आस लगाए बैठे हैं कब इस अंतिम मुगल के अरमान पूरे हो. बढ़िया पोस्ट. आभार.

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  2. ज्ञानवर्धक लेख़ के लिए धन्यवाद !

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