बहुत बुरे हैं वे जिन्हें माँ के बारे में सब कुछ पता है
अच्छे लगते हैं वे जो माँ के बारे में ज्यादा नहीं जानते
बुरों से थोड़ा अच्छे हैं वे जो माँ के बारे में जानना चाहते हैं.
उनसे माँ के बारे में कोई बात तो की जा सकती है.
-विजयशंकर चतुर्वेदी
मंगलवार, 24 मार्च 2009
गुरुवार, 19 मार्च 2009
अबकी होली और समीर लाल की संगत
इस बार जबलपुर जाने का ख़ुमार अलग रहा. अबकी होली के रंगों में कुछ वायवीय, कुछ शरीरी और कुछ अलौकिक अनुभूतियाँ घुली हुई थीं. संकोच के साथ सूचना दिए देता हूँ कि मेरी पत्नी को और मुझे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है, वह भी जबलपुर में. संस्कारधानी के मार्बल सिटी अस्पताल में ४ मार्च की दोपहर २ बजकर ५० मिनट पर सामान्य ढंग से यह सब निबट गया (यह वाली जानकारी ज्योतिषी मित्रों के लिए है -):
ऊपर 'संकोच' की बात इसलिए की है कि इसे मेरे बड़े-बुजुर्ग भी पढ़ेंगे, और अपने बाल-बच्चों की अपने मुंह से चर्चा करना मुझे अटपटा लग रहा है. बात दरअसल यह है कि मैंने जबलपुरिया ब्लॉगर संजय तिवारी 'संजू' के ब्लॉग 'संदेशा' पर यह सब पढ़ लिया है, इसलिए अब बता देने में क्या हर्ज़ है?
तो इस बार की होली के उल्लास का यह प्रथम कारण था.
द्वितीय कारण यह रहा कि पुत्रजन्म के ठीक ६ दिन पहले मेरा प्रथम कविता-संग्रह 'पृथ्वी के लिए तो रुको' राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से न सिर्फ छपकर आया, बल्कि मेरे हाथ भी लग गया. प्रथम प्रकाशित कृति के स्पर्श का अहसास ही कुछ ऐसा था कि हाथ में लेते ही मन मस्त हो गया.. यह और बात है कि अभी इस संग्रह के बारे में मेरे अधिकाँश मित्रों को भी पता नहीं है, लेकिन यहाँ लिख देने से अब यह राज़ भी राज़ नहीं रह गया.
तृतीय कारण बनी एक घरेलू बारात. सतना जिले के बॉर्डर से पन्ना जिले के बॉर्डर बारात पहुँची. चाचा जी के ज्येष्ठ पुत्र की शादी थी. होली का मूड और माहौल बनाने में इस बारात ने बड़ी भूमिका निभाई. एक तो घर में नई बहू आई, दूजे कई वर्षों बाद मैं गाँव की किसी बारात में शामिल हुआ. बहरहाल इसका वर्णन किसी अन्य अवसर पर किया जाएगा.
लेकिन होली के मेरे उल्लास को फाइनल टच जबलपुर में ही भाई समीर लाल (उड़नतस्तरी) जी ने दिया. फ़ोन पर यह सूचना पाते ही कि मैं इस बार होलिका दहन जबलपुर में कर रहा हूँ, उन्होंने ब्लॉगर दोस्तों के मनस्तापों का दहन करने के लिए संस्कारधानी के होटल सत्य अशोक का एक सुइट बुक कराया और जबलपुर के ' ब्लॉगररत्न' जमा कर लिए. यह जमावट चूंकि 'शॉर्ट नोटिस' पर हुई थी इसलिए कुछ ब्लॉगर उपस्थित नहीं हो सके. इसका मुझे और समीर लाल जी को मलाल है. यह मलाल उन्होंने अगले दिसम्बर में दूर करने का वादा किया है. लेकिन इस जमावट में जो कुछ हुआ उसे 'परमानंद' से कम की संज्ञा नहीं दी जा सकती. इस झटपट मिलनोत्सव में 'नई दुनिया' के कार्टूनिस्ट डूबे जी, विवेक रंजन श्रीवास्तव, सुनील शुक्ल, बवाल हिन्दवी और संजय तिवारी ’संजू’ पधारे. इन सभी ब्लोगरों से ब्लॉग-पाठक पूर्व परिचित हैं.
विवेक रंजन श्रीवास्तव ने इस अवसर पर मुझे अपना द्वितीय किन्तु अद्वितीय व्यंग्य-संग्रह 'कौवा कान ले गया' भेंट कर अनुग्रहीत किया. 'राम भरोसे' उनका प्रथम व्यंग्य-संग्रह है. सुनील शुक्ल जी बिजली विभाग से भले ही सेवा-निवृत्त हो चुके हैं लेकिन उनका कंठ आज भी युवा और सक्रिय है. उन्होंने हेमंत कुमार का 'देखो वो चाँद छुपके करता है क्या इशारे' गाकर समाँ बाँध दिया. बवाल हिन्दवी की खासियत यह है कि वह गद्य को भी गाते हुए काव्य का लुत्फ़ देते हैं. उनकी आवाज़ किसी अज़ीज़ नाजां, इस्माइल आजाद या यूसुफ़ आजाद से कमतर नहीं है. आखिर को वह मशहूर कव्वाल लुकमान के वारिस ठहरे.
संजय तिवारी ’संजू’ ने लगभग पूरे समय हम लोगों की वीडियो फिल्म बनाई और फोटुएं खींचीं. उनका अहसानमंद हूँ कि अपने ब्लॉग में उन्होंने संभली हुई मुद्राओं वाली फोटुएं ही छापी हैं वरना तो कमरे का वातावरण पूर्ण होलीमय हो गया था... और डूबे जी के क्या कहने! हम लोग होली मना रहे थे और डूबे जी चुपके-चुपके अपना काम कर रहे थे. मेरा और समीर लाल जी का एक ऐसा आत्मीय स्केच उन्होंने कागज़ पर उतार दिया जिससे महफ़िल का राज़ लाख छिपाया जाए, छिप नहीं सकेगा. कहने की आवश्यकता नहीं कि डूबे जी अपने काम में सिद्धहस्त हैं.
समीर लाल जी ने अपनी ग़ज़ल सुनाई तो मौके का फायदा उठाते हुए मैंने भी काव्य पाठ कर दिया. मेरा आग्रह है कि इस जमावट की विस्तृत रपट के लिए आप यह लिंक अवश्य पढ़ें. स्केच तथा फोटुएं भी यहीं देखने को मिलेंगी.
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