सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

मैंने म.प्र. प्रलेस इसलिए छोड़ा- ज्ञानरंजन

ज्ञानरंजन का नाम साहित्य जगत में बड़े आदर के साथ लिया जाता है. उनके सम्पादन में हाल-फिलहाल तक निकलनेवाली प्रतिष्ठित लघु-पत्रिका 'पहल' का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है. एक कथाकार के रूप में ज्ञान जी ने हिन्दी साहित्य को कई अनमोल कहानियां दी हैं. वह मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के वरिष्ठ और सम्मानित सदस्यों में शुमार रहे हैं. लेकिन पिछले दिनों जब उन्होंने अचानक इस लेखक संघ से नाता तोड़ने का निर्णय लिया तो हिन्दी जगत के लिखने-पढ़ने वालों को एक झटका लगा. सबके मन में एक ही प्रश्न था कि आखिर इतने बड़े निर्णय के पीछे क्या वजह रही होगी? यही प्रश्न मेरे मन में भी था, सो मैंने ज्ञान जी से बातचीत करने की सोची. इस पर ज्ञान जी ने जो कहा वह आपके सामने ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ-


"ये स्थितियां पिछले पांच-दस वर्षों से लगातार बनती चली आ रही थीं. प्रगतिशील लेखक संघ का सांस्कृतिक विघटन जारी है. मुझे तो यह लगता है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद जिस तरह की लूट-खसोट हर क्षेत्र में मची थी, उसी तरह का माहौल पिछले दिनों से प्रलेस में चल रहा है. लोगों को ऐसा लगता है कि अब हमारे सामने कोइ मॉडल बचा नहीं है इसलिए जहां से जितना मिले लूट-खसोट लो. कम्युनिस्ट पार्टियों के भारतीय राजनीति में हाशिये पर आने के बाद हमारे सांस्कृतिक मोर्चे के जो नेता हैं उनमें ये कैफियत पैदा हो गयी दिखती है.

पिछले वर्षों में जिस तरह वामपंथी गढ़ ढहे, दूसरी तरफ नव-पूंजीवाद, अमेरिकी दादागिरी और उपभोक्तावाद का शिकंजा जिस तरह से कसता गया है, उसके दबाव और आकर्षण में हमारा प्रगतिशील नेतृत्त्व प्रेमचंद की परम्परा कायम नहीं रख सका और एक विचारहीनता का परिदृश्य तैयार करता रहा.
आप देखिये कि प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष नामवर सिंह जसवंत सिंह से लेकर सुमित्रा महाजन जैसे फासिस्ट और दक्षिणपंथी विचारधारा वाले लोगों के साथ मंच साझा कर रहे हैं और इस बात पर ज़ोर देते हैं कि विचारधारा की अब कोई जरूरत नहीं बची. इस घालमेल से नए रचनाकारों को घातक संकेत और प्रेरणा मिलती रही है. संयोग देखिये कि प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने जो किया उसी के नक्श-ए-क़दम पर चलते हुए राष्ट्रीय महासचिव ने भी छत्तीसगढ़ के भाजपाई मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह के साथ मंच साझा कर लिया. इस आचरण और प्रवृत्ति का विस्तार होता जा रहा है...और संगठन के पदाधिकारी अपने आचरण को तर्कसंगत बताने का प्रयास कर रहे हैं.

भारतवर्ष में इन दिनों अनेक विदेशी एजेंसियां वित्तीय सहायता देकर अनेक संगठनों, पत्रिकाओं और व्यक्तियों की प्रतिबद्धता तथा सृजनात्मक शक्ति को, उनकी विचारशीलता को कुंद करने का प्रयास कर रही हैं. इस सन्दर्भ में फोर्ड फ़ाउंडेशन द्वारा संचालित एक पुरस्कार, जो 'कबीर चेतना' के नाम से पिछले दिनों सुर्खियों में आया है, मध्य प्रदेश प्रलेस की पत्रिका 'वसुधा' ने भी हस्तगत कर लिया. यह बात फोर्ड फ़ाउंडेशन की रपट में खुले आम छपी है. मेरे पास वह रपट है.
विदित हो कि प्रलेस ने दस वर्षों तक म.प्र. में फोर्ड फ़ाउंडेशन के कारनामों के खिलाफ लंबा संघर्ष किया था, प्रस्ताव पारित किये थे और समय-समय पर सुप्रसिद्ध 'कला का घर' भारत-भवन का बहिष्कार भी किया था. विचार कीजिये कि प्रेमचंद का प्रलेस अब कहाँ पहुंचा दिया गया है.

प्रलेस में लेखकों की रचनाओं पर गोष्ठियां होती थीं, नवोदित लेखकों को प्रोत्साहित किया जाता था, अब वह सब बंद है. जैसे कोई ज़मीन या मकान पर कब्ज़ा कर लेता है उसी तरह चंद लोगों ने म.प्र. प्रलेस पर कब्ज़ा कर लिया है, वह भी अपने हित साधने के लिए. जिस मिशन और संविधान के साथ प्रलेस शुरू हुआ था वे सारी चीज़ें धूमिल हो गयी हैं और सत्ता तथा धन के साथ जुड़ाव प्रबल हो गया है. म.प्र. प्रलेस में आतंरिक लोकतत्र के लिए कोई स्थान नहीं बचा है.

मैंने व्यक्तिगत स्तर पर कई बार प्रलेस की संगठन बैठकों में प्रयास किया कि चीज़ें पटरी पर आयें, अगर कोई गलत बात हो रही हो तो उसे चर्चा करके ठीक कर लिया जाए, लेकिन ऐसा भी संभव नहीं रह गया. यही वजह है कि मैं पिछले पांच वर्षों से उदासीन हो गया था और अंततः मुझे त्यागपत्र देने का अप्रिय निर्णय लेना पड़ा.

यह चिंता सिर्फ प्रलेस से जुड़े साहित्यकारों की ही नहीं बल्कि पूरे लेखक समुदाय की होनी चाहिए... क्योंकि आज सांस्कृतिक संगठनों में पतनोन्मुखता का बोलबाला होता जा रहा है."

ज्ञान जी ने यह खुलासा भी किया कि स्वास्थ्य कारणों से 'पहल' को इंटरनेट पर ले जाने का विचार उन्होंने त्याग दिया है.

9 टिप्‍पणियां:

  1. ज्ञानरंजन जी का उठाया मुद्दा सही है। यह विषय साहित्य में विचारणीय हैं। इन्हीं मुद्दों पर चंद्रबलि सिंह का एक साक्षात्कार शिवराम ने किया था जो अभिव्यक्ति के ताजा अंक में छपा है जिस का उल्लेख जगदीश्वर चतुर्वेदी ने मोहल्ला लाइव पर अपने आलेख में किया था। उस आलेख में चंद्रबलि सिंह ने जो कहा वह तो है लेकिन वे मुद्दे छूट गए हैं जो शिवराम ने अपने साक्षात्कार में उठाए थे।

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  2. committed people should form another organisation and continue the progressive work
    or you may choose to contribute individually

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  3. ज्ञान जी सहित कई वामपंथी बुद्धिजीवियों का यही सोचना है कि सोवियत रूस के विघटन के बाद अब हमारे सामने कोई मॉडल बचा नहीं है. यह गलत फहमी है, सी.पी.आई का हाका करने वाले ये बुद्धिजीवी आँख खोल कर सच्चाई देखना नहीं चाहते।
    ये लोग नव-पूंजीवाद, अमेरिकी दादागिरी और उपभोक्तावाद आदि आदि सारे शब्दजालों को गलियाऐंगे परंतु भारतीय पूंजीवाद को कुछ नहीं कहेंगे.
    वे कह रहे हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष नामवर सिंह जसवंत सिंह से लेकर सुमित्रा महाजन जैसे फासिस्ट और दक्षिणपंथी विचारधारा वाले लोगों के साथ मंच साझा कर रहे हैं ........ परंतु जब वाम मोर्चा केन्द्र सरकार में कांग्रेस की गोद में बैठ गया तब इन्हें कोई तकलीफ नहीं हुई।
    पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार दुनिया भर के पूँजीपतियों को बुलाकर क्या कुछ नहीं कर रही है तो फिर फोर्ड फाउन्ड्रशन से उन्हें क्यों तकलीफ है। अब यह ना कहने लगना कि प्रलेस का वाममोर्चा से क्या लेना देना और हम तो सी.पी.आई. को जानते भी नहीं।
    सुविधा भोग की जो चिंतनधारा ऊपर से जनरेट हो रहीं हो उन्हें एक अकेले ज्ञानरंजन प्रलेस की बैठक में कैसे ठीक कर पाते।
    सचमुच यह चिंता तमाम साहित्यकारों, पूरे लेखक समुदाय की होनी चाहिए... कि आज वाकई कोई राजनैतिक दल उन्हें क्रांतिकारी नेतृत्व देने में सक्षम है या नहीं, यदि है तो अवसरवादिता छोड़कर उसे ढूढ़ने में लग जाना चाहिए। सांस्कृतिक संगठनों की पतनोन्मुखता से निपटने के लिए एक सही राजनैतिक नेतृत्व की तलाश आवश्यक है।
    नारदमुनि
    भोपाल

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  4. आदरणीय पंडितजी,
    ज्ञानरंजन साहब का यह इंटरव्यू ब्लागजगत के लिए धरोहर बन कर रहेगा। बहुत बहुत आभार आपका इसके लिए।

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  5. मौत का एक दिन मुअय्यन है
    नींद क्यूँ रातभर नहीं ...

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  6. ...नींद क्यों रात भर नहीं आती!

    लेकिन इसमें इतना बेनामी होने की बात क्या है?

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  7. आप को फेस बुक पर कंफर्मेशन दे दी है, आप का यह पोस्ट भी देख लिया. उदय प्रकाश ने योगी से पुरस्कार ले लिया तो वह अछूत हो गया. (जातिवादी भी)
    वसुधा को हम ने क्या सज़ा दी? दे ही नही सकते. क्यों कि हम प्रगतिशीलों की प्रायरिटी छ्पना है . हम अपना एक बडा मंच खोना नहीं चाहेंगे. चाहे वह पूंजीवादी ताक़तों से ही क्यों न पोषित होता हो ! उसे हम अछूत नहीं घोषित कर सकते..... कितने प्रगति शील लेखक हैं हम.

    committed people should form another organisation and continue the progressive work
    or you may choose to contribute individually

    सही कहा है.ऐसे हालात में संगठन पर से भरोसा उठना जायज़ है.

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  8. ज्ञानरंजन जी का यह दर्द आज का नही है जो लोग उनसे जुड़े है समय समय पर उनसे वे यह शेयर करते रहे है । उनकी इस चिंता को गम्भीरता से नही लिया गया यह अफसोस की बात है अत: यह तो घटित होना ही था । प्रलेस मे शीर्ष पर इतनी दूरियाँ हो जायेंगी यह कभी सोचा नही था लेकिन जो भी हुआ है वह अफसोसजनक है । इस से आनेवाली पीढ़ी ( जो लगभग नही है ) के लिये भी गलत सन्देश जायेगा । चतुर्वेदी जी इस प्रस्तुति के लिये धन्यवाद वैसे हम जानते है कि ज्ञान जी की बात अभी पूरी नही हुई है इतने वर्षो से जो संचित है वह इतने कम शब्दो मे नही कहा जा सकता ।

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  9. @विजय जी,

    अभी तक तय नहीं किया है कि गुलामी किस विचार या व्यक्ति की करनी है इसलिये कोई नाम नहीं पड़ा है, बेनाम हैं। क्या फर्क पड़ता है यदि टिप्पणी रामप्रसाद की है या घनश्याम की है !!!
    मैंने आपका ब्लाग ही पढ़ा है आपके नाम से इसमें कुछ नहीं जुड़ता है।
    वैसे मेरे पास राशनकार्ड है।

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