सोमवार, 21 दिसंबर 2009

दुनिया-ए-फ़ानी से बेलौस गुज़र गए नीरज कुमार

मैं सैनिकों के रानीखेत क्लब में पर्वतराज हिमालय की ओर मुंह किये नंदा देवी की मनोरम चोटी को अपलक निहार रहा था, जो मुझे मिस्र के किसी बच्चा पिरामिड की तरह लग रही थी. वह सोमवार की जोशीली सुबह थी. 'कबाड़खाना' वाले अशोक भाई खुद को फुर्ती से भरकर मित्रों के साथ थोड़ी ही दूर पर चहलकदमी कर रहे थे और लखनऊ वाले कामता प्रसाद बगल की कुर्सी पर बैठे दवाइयां खा रहे थे. इसी बीच बरगद उखड़ जाने का एसएमएस आया. लिखा था- नीरज कुमार कल शाम नहीं रहे. दिल का भीषण दौरा पड़ने से नीरज जी का निधन इतवार को हो गया था. यह भी एक संयोग ही था कि उनकी मौत की तारीख ६ दिसंबर थी और बाबरी मसजिद ढहाए जाने की बरसी पूरे देश में तारी थी. सन्देश पढ़ते ही मेरे भीतर कड़ाक की आवाज़ के साथ कुछ टूट गया.


मेरा लटका हुआ मुंह देखकर अशोक भाई ने पूछा भी कि क्या हुआ है, मैंने वह दुखद समाचार कह सुनाया. अशोक भाई ने याद किया- 'अच्छा, अच्छा! वही नीरज कुमार, जिनका जिक्र आप कल शाम कर रहे थे.' मैंने कहा 'हाँ' और एक सर्द आह मेरे मुंह से निकल गयी. अब इसे संयोग कहें कि कुछ और, जिस समय नीरज जी के प्राण मुंबई में निकल रहे थे, लगभग उसी समय मैं उनका एक शेर रानीखेत में अशोक भाई और उनके मित्रों को सुना रहा था. शेर था-

'मीना बाज़ार सा न मेरा रखरखाव था
फुटपाथ की दुकाँ थी बड़ा मोल-भाव था.'


यह शेर नीरज जी की ज़िंदगी पर सौ फ़ीसद खरा उतरता है. बहरहाल, बदहवाश होकर मैंने फ़ौरन वहीं से गोपाल शर्मा, सिब्बन बैजी और सैय्यद रियाज़ को मुंबई फोन लगाया. पूछा कि कुछ पता है कि क्या हुआ था. फोन आलोक भट्टाचार्य को भी लगाया लेकिन वह उस वक्त लगा नहीं. ये लोग एक समय के हमप्याला और हमनिवाला थे. मुंबई का एक दुखद पहलू यह भी है कि यह एक बार लोगों को अलग करती है तो सालों मिलना-जुलना नहीं हो पाता. सबके रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं. दसियों साल एक साथ करने वाले लोग काम की जगह बदल जाने पर यहाँ बीसियों साल तक नहीं मिल पाते. फिर नीरज जी के पास तो कोई काम भी नहीं था. वह वर्षों से बेरोज़गार थे.

यह समाचार मिलते ही ये लोग कुर्ला की तरफ भागे, जहां जरी-मरी इलाके की एक बैठी चाल में नीरज जी रहा करते थे. लेकिन तब तक सारा खेल ख़त्म हो चुका था. वह मुस्कुरा कर बात करने वाला पका हुआ तांबई चेहरा, वह गर्व से उठा हुआ चौड़ा माथा और उस माथे का गहरा बड़ा तिल, वह तंज करती मुहावरेदार हिन्दुस्तानी भाषा, वह हमेशा पुराने लगनेवाले पैंट-शर्ट में नई-नई सी लगने वाली रूह पता नहीं कहाँ रुखसत हो चुकी थी. मुझे गहरी उदासी ने घेर लिया था रानीखेत में. फिर दिन यंत्रवत चलता रहा. हलद्वानी लौटते समय पूरे रास्ते मेरी देह कार में थी और दिमाग में यादों का बगूला उठ रहा था.

वे मेरे अंडे से निकलने के दिन थे. कान्वे प्रिंटर्स का 'नया सिनेमा' साप्ताहिक वरली नाका की रेडीमनी टेरेस नामक इमारत से निकलता था. 'उर्वशी' के सम्पादक रह चुके आलोक सिसोदिया इस रंगीन और सचित्र साप्ताहिक के सम्पादक थे. मैं यहाँ उप-सम्पादक नियुक्त हुआ था. यह १९८९-९० का वर्ष था. नीरज जी से मेरी पहली मुलाक़ात और पहली भिड़ंत भी इसी दफ़्तर में हुई. दरअसल वह मेरे चतुर्वेदी होने का अपनी विशेष शैली में मज़ा लेने लगे और मैं आग-बबूला हो उठा. वह तो बहुत बाद में मुझे अहसास हुआ कि वह मुझे प्रगतिशीलता का पहला पाठ पढ़ा रहे थे. लेकिन गाँव से आये संस्कारी ब्राह्मण नवयुवक विजयशंकर को वह बेहद नागवार गुजरा और अत्यंत जूनियर होने के बावजूद उसने पर्याप्त उत्पात उनके साथ मचाया.

उसी समय एक ऐसी घटना घटी कि किसी लेख पर सम्पादक जी के साथ मैंने बहस फंसा ली और लगा कि नौकरी गयी. लेकिन नीरज जी ने मेरा हर तरह से साथ देकर मुझे बचा लिया और उनकी इस कार्रवाई से प्रभावित होकर उस दिन से मैं उनकी बातें ध्यान से सुनने लगा. वह जिस तरह से ईश्वर, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषा के ब्राह्मणत्व की धज्जियां उड़ाते थे, उसे सुन-सुन कर मैं दंग था. ऐसी क्रांतिकारी स्थापनाएं मैंने जीवन में पहली बार सुनी थीं. मैं गहरे रोमांटिसिज्म के नशे में गिरफ्तार हो गया और शीघ्र ही उनका फैन बन गया. फिर तो जल्द ही उन्होंने सीनियर-जूनियर का फर्क मिटा दिया और जहां भी जाते अपने साथ ले जाते. उन्हीं के साथ मैंने मुम्बई का वह 'अंडरवर्ल्ड' देखना शुरू किया जिसमें देसी दारू के अड्डे, हिजड़े, वेश्यालय, जुआ खाने, सटोरिये, चौपाटियाँ, मुम्बई रात की जगमगाती बांहों में, नंगी सड़कें, झोपड़पट्टियां और मुशायरे तक की बेपनाह दुनिया थी.

इसके बाद की दास्ताँ बयान करने के लिए एक उम्र भी कम है और कलेजा भी चाहिए. इसमें नीरज जी की तंगहाली, स्वाभिमान, मानसिक उलझनें, भावनात्मक टूटन, पारिवारिक बियाबान और बरजोरी के अनेक किस्से है. आखिरकार स्थायी बेरोज़गारी से आज़िज आकर उन्हें मुंबई त्याग कर रोजी की उम्मीद में पटना जाना पड़ा. वह कृष्ण होते तो लोग 'रणछोड़' नाम दे देते. लेकिन चमचमाती दुनिया के कामयाब साथी उन्हें कब का मुंहफट और शराबी करार देकर उनसे कन्नी काट चुके थे. अधिकाँश लोगों को तो पता भी नहीं था कि पिछले १० वर्षों से नीरज जी कहाँ हैं. इस हालत पर उनका ही एक शेर कितना मौजूं है-

'शाइस्ता यारों ने उसको पत्थर करके छोड़ दिया,
जंगल का इक शख्स शहर में इन्सां बनने आया था.'


इस दरम्यान नीरज जी साल-छः माह में मुंबई आते-जाते रहते थे. मुंबई उन्हें जबरदस्त तौर पर खींचती थी. दो-चार मुलाकातें इस बीच की मुझे याद हैं जो पहले जैसी ही आवारगी और गर्मजोशी और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक बहस और गर्मागर्मी और झगड़ों से भरी हुई थीं. पिछले वर्ष नीरज जी हमेशा के लिए अपनी प्यारी मुंबई आ गए थे. बेटी की शादी हो चुकी थी और बेटा पढ़ाई कर रहा था.

एक दिन हम मिले- मैं, सैयद रियाज़ और नीरज जी. मेरे घर पर ही बैठक हुई. माँ की लगातार बिगड़ती तबीयत और सायन अस्पताल में होने जा रहे ऑपरेशन को लेकर वह बहुत चिंतित थे. फिर भी उन्होंने कहा- 'ज़रा जी को सुकून और मुझे दुनिया से फुर्सत मिले तो आराम से बैठेंगे विजय... और ऐसे वक्त में जब दोस्तों के घर चाय की प्याली भी नसीब नहीं, तुम्हारा घर शराब के लिए भी खुला रहता है. जीते रहो! फिर आज तो गाना-बजाना भी नहीं हुआ'.

सुबह जल्द उठकर वह कुर्ला चले गए और हम सोते ही रह गए. मुझे याद आया कि नीरज जी की आवाज़ कितनी सुरीली और तरन्नुम कितना दिलकश था. जब वह मस्ती में होते तो अपना एक रोमांटिक शेर ऐसे दर्द और अवसाद भरे तरन्नुम में गुनगुनाते कि कलेजा मुंह को आता-

'अक्सर तुम्हें देखा है, तुम देख के हंसते हो
ज़रा अपना पता देना, किस बस्ती में बसते हो.'


छपने-छपाने की तरफ से वह किस कदर लापरवाह थे इसका एक सबूत यह है कि उनकी सारी गज़लें और नज्में न तो किसी किताब में मिलेंगी, न किसी दोस्त के पास और न ही उनके घरवालों के पास. उनकी शायरी में मुद्दों की गहरी समझदारी, पैनी राजनीतिक दृष्टि, महीन व्यंग्य, साम्प्रदायिकता विरोध और भविष्य में तीखे जनवादी संघर्ष का आशावादी दृष्टिकोण साफ़ नजर आता है. दरअसल वह दुष्यंत कुमार के बाद की पीढ़ी के चंद उम्दा शायरों में से एक थे. पेश हैं उनके चंद अश'आर-

'पुल क्या बना शहर से आफ़त ही आ गयी
इस पार का जो कुछ था उस पार हो गया.'

'बादल सहन पे छायें तो किसी गफ़लत में मत रहना
हवा का रुख बदलते ही घटा का रुख बदलता है.'

'यूं ही इधर-उधर न निशाने खता करो
मौसम फलों का आयेगा ढेले जमा करो.'

'कुछ शरीफों ने कल बुलाया है
आज कपड़े धुला के रखियेगा.'

'हमको पता यही था के सलमान का घर था
वो कह रहे हैं हमसे मुसलमान का घर था.'

'गुज़रो तो लगेंगी ये शरीफ़ों की बस्तियां
ठहरो तो लगे आबरू अब कैसे बचाएं.'

'आपसे हुई थी इल्म बेचने की बात
रह-रह के क्यों ईमान मेरा तोल रहे हैं.'

'रोज़ी तलाशने सभी शोहदे शहर गए
पनघट से छेड़छाड़ का मंजर गुज़र गया.'


नीरज जी के बारे में मेरे पास लिखने और कहने को बहुत अधिक है. तमाम ऐसे किस्से हैं जिनसे हमारी आवारगी और बदमिजाजी का गुमाँ होता है. कितनी ऐसी छेड़ें हैं जो यारों और अय्यारों के साथ चली आती थीं. लेकिन वह कहानी फिर सही...

हमारी आख़िरी बैठकबाज़ी यही कोई चार माह पहले हुई थी. उन्हें किसी ने पुराना मोबाइल दे रखा था जिसका बैलेंस ख़त्म होने के बाद करीब दो माह से बातचीत भी नहीं हो पा रही थी. सैयद रियाज़ से ही मैं पूछा करता था कि नीरज जी से मुलाक़ात हुई या नहीं. इधर कुछ दिनों से उनका अपने सबसे पुराने यार सैयद रियाज़ से भी कुछ ठीक नहीं चल रहा था. रियाज साहब ने मुझसे कहा था कि अब वह नीरज जी से कभी मिलना नहीं चाहेंगे. वजह वही दारू की टेबल पर हुए झगड़े की, दोस्ती की, स्वाभिमान की, वही पाक-साफ़ होने के अनुपात की. मैं जानता हूँ कि न मिलने की ऐसी कसमें जाने कितनी बार टूटी हैं. इस बार भी टूटतीं. लेकिन इस बार तो नीरज जी ने ही कोई मौक़ा नहीं दिया और दुनिया-ए-फ़ानी से चले गए. अकबर इलाहाबादी ने शायद नीरज जैसे कबीरों के बारे में ही कहा है-

'इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊंगा बेलौस
साया हूँ फ़क़त नक्श-ब-दीवार नहीं हूँ.'

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