सिर पर एक बड़ी-सी आलमारी उठाये बरसात में एक आदमी धरती पर मज़बूती से क़दम जमाता हुआ छप्प-छप्प करता चला जा रहा है। पीछे से देखने में वह उन लाखों मेहनतकश लोगों की ही तरह दिख रहा है, जो इस महानगर की मज़दूर बिरादरी का हिस्सा हैं। लेकिन अगर आपकी उत्सुकता जागे तो आप दौड़कर उसके आगे जाइए और गौर से देखिए- चौंकाने वाली कोई बात उसके चेहरे पर नहीं। वजन से फूली उसकी आँखें और अकड़ी गरदन नज़र आयेगी, जो यहाँ के हर गली-कूचे में नज़र आती है। इस आदमी का नाम है मोहम्मद रईस, जिसे साथ के लोग 'प्रधान' कहकर बुलाते हैं।
भायंदर (जिला-ठाणे) की नवघर रोड, केबिन रोड, वीपी रोड, मीरा रोड, सिल्वर पार्क, काशी-मीरा या इसके आस-पास के इलाकों में कभी-भी नज़र आ सकता है यह शख्स। उसी मुद्रा में- तौलिये को पाँच-छः परत करके सिर पर जमाये, टीवी-रेफ्रीजरेटर, वाशिंग मशीन, टेबल-कुर्सियाँ या ऐसी ही कोई चीज उठाये। या फिर टूटी-फूटी काली-सी गैलन लिये पानी की तलाश में भटकता दिखाई दे सकता है प्रधान।
ऊपर जिस घरेलू और सजावटी सामान का ज़िक्र है, वह प्रधान के ढोने के लिए है। यह सामान सिर से उतरकर उसके घर कभी नहीं जाता। जाता है उन जगहों पर, जहाँ प्रधान जैसे लोगों का घर नहीं हो सकता. वह नवघर रोड पर ही एक जर्जर इमारत के गाला में रहता है। दरवाजे की जगह शटर है, जिसे रात में बंद कर लेने पर हवा तक पर नहीं मार पाती। गाला के अन्दर ही एक संकरी-सी मोरी है, जिसमें बर्तन धोये जाते हैं और खाने-पीने से शरीर में बना अपशिष्ट पदार्थ भी वक्त-जरूरत विसर्जित किया जाता है। संडास (पाखाना) बगल में है। खुदा बड़ा नेकदिल है।
अब्बा ने बहुत मना किया था प्रधान को कि जो थोड़ी-बहुत खेती-पाती है, उसी में गुज़ारा करो; वहाँ बंबई (अब मुम्बई) में नौकरी तौलायी नहीं धरी है, लेकिन बेटे ने इसे एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। तब अब्बा ने कहा- 'जो न माने सयाने की सीख, लिये कटोरा मांगे भीख'।
प्रधान ने मुम्बई आकर भीख तो नहीं मांगी, पर कोई राजपाट भी उसे नहीं मिला। पढ़ा-लिखा तो था नहीं कि बाबूगिरी जैसा कोई प्रतिष्ठित काम हाथ लग जाता। उसको मिली हबीब भाई की भट्ठी। संयोग की ही बात है कि प्रधान के बड़े भाई का नाम भी हबीब ही है।
दोनों भाई पढ़ने जाते थे। घर से साथ निकलते थे। स्कूल दूसरे गाँव में यही कोई एक किलोमीटर की दूरी पर रहा होगा। लेकिन दोनों भाई कभी स्कूल नहीं पहुंचे। कभी पास की अरहरी में घुस जाते थे, तो कभी किसी बाग़ में। अब्बा हुज़ूर ने कई मर्तबा जूतियों से नवाजा लेकिन प्रधान के मुताबिक- 'लड़कई बुद्धि, कोई असर नहीं होता था। वरना क्या किसी के माँ-बाप औलाद के दुश्मन होते हैं?' नतीज़ा, पहली पास का प्रमाण-पत्र भी नहीं है दोनों भाइयों के पास।
प्रधान का गाँव हर्रैया पहले बस्ती जिला में पड़ता था, अब सिद्धार्थनगर में है। अलबत्ता तहसील वही है- इटवा. चार बीघा ज़मीन पहले थी, अब भी है। प्रधान की किस्मत में पढ़ना नहीं लिखा था वरना अपने अब्बा से कोई शिकायत नहीं। बल्कि इस बात का बेहद मलाल है कि जब वह गाँव छोड़कर मुम्बई के लिए रवाना हुआ तो अब्बा की बात अनसुनी करके चला। दो महीने बाद ही ख़बर आ गयी कि वह इंतकाल फरमा गए। आख़िरी वक्त में मुंह देखना भी नसीब न हुआ. इस वाकये को १४ साल गुजर गए, पर छाती में वह पछतावा आज भी कसकता है। प्रधान को ताज्जुब है कि वक्त को लोग मरहम क्यों कहते हैं!
प्रधान जब यूपी का अपना गाँव छोड़कर महाराष्ट्र की राजधानी के एक बहुत व्यस्त इलाके में हबीब भाई के यहाँ पहुंचा तो उसको समझ में नहीं आया कि क्या काम करे, क्या खाए और कैसे बसर करे। मानव जीवन की तीनों बुनियादी जरूरतों ने यहाँ कदम रखते ही उसके साथ हाथापाई शुरू की। प्रधान ने पहले तो कुछ देर सोचा, फिर यूपी के अपने अक्खड़ अंदाज़ में इन जरूरियात के साथ पंजे भिडा दिए।
हबीब भाई का दौलतखाना कुर्ला की सीएसटी रोड पर आबाद था। यहीं उनका कारखाना भी था। उनके यहाँ भट्ठियाँ थीं। इनमें ज़स्ता, एल्यूमिनियम, ताँबा, शीशा वगैरह पिघलाया जाता था। फिर इसे सांचे में ढालकर लादी की शक्ल दी जाती थी। प्रधान की इस काम में दिलचस्पी पैदा नहीं हो सकी तो हबीब भाई ने कहा- 'काम इधर-उधर कर लिया करो, रहा यहीं करो, यहीं खाना भी बना सकते हो, ओके?'
प्रधान ने कहा- 'ओक्क्के'।
इस इलाके में भंगार, लकड़ी और लोहे से भरी गाडियाँ बहुत आती थीं। प्रधान दूसरों की देखादेखी इन्हें खाली करने और भरने की मज़दूरी कराने लगा। काम हाड़तोड़ था। दर्द से रात भर नींद नहीं आती थी। अम्मी-अब्बा बेतरह याद आते। लेकिन धीरे-धीरे देह ने दर्द से समझौता कर लिया। अगले छः महीनों तक ये सिलसिला चला। उसी दौरान अब्बा के गुजर जाने की मनहूस ख़बर आयी थी।प्रधान उल्टे पाँव गाँव भागा.
प्रधान घोड़ी पर तो अब्बा के सामने ही चढ़ चुके थे। एक बच्चा भी हो गया था। अब उनकी परदेश निकालने की हिम्मत नहीं हुई। अब्बा तो गुजर गए, कहीं अम्मी भी!... नहीं अब वह कहीं नहीं जानेवाला। खेती करेगा, उसमें जो उपजेगा उसी में पेट पालेगा. प्रधान का यह निश्चय २ सालों तक अडिग रहा. इस बीच वह और एक बच्चे का वालिद बना. बड़े भाई के बाल-बच्चे तो खैर बड़े-बड़े थे. तीन बेटे. बाद को एक बेटी और हुई.
हर्रैया हिन्दू-मुसलमानों की मिली-जुली बस्ती है. फिफ्टी-फिफ्टी का अनुपात. लेकिन यहाँ कभी तनातनी नहीं होती. प्रधान को याद नहीं आता कि महजिद के मामले में भी किसी ने फसाद की बाद की हो. हाँ, मुसलमान मुसलमानों से तथा हिन्दू हिन्दुओं से काफी लड़ते-झगड़ते रहते हैं. वजह, वही जर-जमीन का चक्कर. प्रधान को बहुत लोगो ने दबाया कि छोडो मुम्बई-उम्बई, यहीं उनकी मज़दूरी करो लेकिन वह समझ गया कि ये लोग उसे अपनी ही खेते से बेदखल करना चाहते हैं. उसने न कर दी. 'गाँव में अमीर मुसलमान गरीब मुसलमान को तथा अमीर हिन्दू गरीब हिन्दू को इसी तरह दबाते है'- कहता है प्रधान।
दो सालों का अटल निश्चय आखिरकार टूट ही गया. फाकों की नौबत के चलते उसने एक बार फिर मुम्बई की राह पकड़ ली है.
प्रधान की बेगम वहीं पास के परसा गाँव की हैं. पढ़ने-लिखने की डिग्री के मामले में मरद से बिलकुल कम नहीं. खेती के काम में उन्हें लगना पड़ा था दुल्हन बनाकर आते ही. बच्चे पैदा करना तो खैर कुदरती काम ठहरा! कुदरत की ही कृपा है कि प्रधान आज ५ बेटों के वालिद बन चुके हैं. बड़ा वाला मुश्ताक तीसरी तक पढ़कर आजिज आ गया और गाँव की पढाई को आख़िरी सलाम थोक चुका है. भायंदर में ही बाप के साथ रहता है और लकड़ी को फर्निचर बनाने का हुनर सीख रहा है. बाप-बेटा रोज़ रात ढले उसी संदूकनुमा गाले में बंद हो जाते हैं. रोज़ स्टोव जलाया जाता है, रोज़ काम पर निकला जाता है.
इन सालों में प्रधान की यह हिम्मत नहीं हुई कि कभी अपनी खोली के बारे में सोच सके. मुम्बई में ख़ुद की खोली कोई मजाक है क्या. इसीलिए उन्होंने अपनी बेगम को कभी साथ रखने की नहीं सोची. साल में पूरा एक महीना गाँव को समर्पित है. प्रधान इसका पालन नियम से करते आ रहे हैं.
बरसात का मौसम प्रधान के लिए मुसीबतों का मौसम है. खरीदारी घटती है तो सामान ढुलाई का काम भी कम हो जाता है. लेकिन स्टोव पर चढ़ने वाला राशन, ब्लैक में मिलनेवाला मिट्टी का तेल बराबर मंहगा होता जाता जाता है. तबीयत ख़राब होती है तो खुदा का नाम लेते हैं प्रधान. डॉक्टर एक इंजेक्शन के सौ रुपये गाँठ लेता है. यह भी कोई बात हुई भला?
प्रधान ने तीन बच्चों का नाम स्कूल में लिखा रखा है. अल्लाह की मर्जी हुई तो इनमें से कोई दसवीं के पार भी जा सकता है. प्रधान रहते यहाँ हैं लेकिन जी घर में लगा रहता है. आख़िर वाला बेटा तो अभी 'बहुतै' छोटा है. खैर जब तक चलेगा चलायेंगे, वरना प्रधान मुलुक लौट जायेंगे. आखिरकार, उम्र भी तो पचास के पार होने को है!
शुक्रवार, 30 नवंबर 2007
'तलछट' का ताना-बाना
दोस्तो,
20 अक्टूबर १९७२ को हिन्दी के महान आलोचक स्वर्गीय डॉक्टर रामविलास शर्मा ने स्वनामधन्य आलोचक विजयबहादुर सिंह को एक पत्रोत्तर में लिखा था- 'हिन्दी के 'क्रांतिकारी' लेखकों की विशेषता है कि वे जिंदा मजदूर के बारे में कुछ नहीं जानते, सर्वहारा वर्ग पर घंटों बोल सकते हैं, महीनों लिख सकते हैं। हाड़मास के मजदूर को प्रत्यक्ष जीवन में न जानने वाले सब लेखक idealist हैं, भले ही वे अपने को बहुत बड़ा द्वंद्वात्मक भौतिकवादी मानते हों। उपन्यास न सही, दस मज़दूरों के संक्षिप्त जीवन-चरित लिखो। परिवेश, परिवार जीविकोपार्जन आदि का वृतांत देखकर, पूछकर लिखो। यह कार्य उपन्यास लेखन से कम रोचक न होगा। बोलो, तैयार हो?'
यह सोचकर रोमांच होता है कि उस समय मैं २ साल का रहा हूँगा। यह पत्र मैंने 'वसुधा' में बरसों बाद पढ़ा। सच मानिए, जनसत्ता 'सबरंग' के लिए यह काम मैं साल २००० के पहले सीमित अर्थों में सम्पन्न कर चुका था। मेरा 'लोग हाशिये पर' स्तंभ इसी तरह के चरित्रों पर आधारित था। उसके कुछ चुने हुए चरित्रों को आप सबसे मिलवाने की तमन्ना है 'तलछट' नाम से। तो काम पर लगा जाए?
20 अक्टूबर १९७२ को हिन्दी के महान आलोचक स्वर्गीय डॉक्टर रामविलास शर्मा ने स्वनामधन्य आलोचक विजयबहादुर सिंह को एक पत्रोत्तर में लिखा था- 'हिन्दी के 'क्रांतिकारी' लेखकों की विशेषता है कि वे जिंदा मजदूर के बारे में कुछ नहीं जानते, सर्वहारा वर्ग पर घंटों बोल सकते हैं, महीनों लिख सकते हैं। हाड़मास के मजदूर को प्रत्यक्ष जीवन में न जानने वाले सब लेखक idealist हैं, भले ही वे अपने को बहुत बड़ा द्वंद्वात्मक भौतिकवादी मानते हों। उपन्यास न सही, दस मज़दूरों के संक्षिप्त जीवन-चरित लिखो। परिवेश, परिवार जीविकोपार्जन आदि का वृतांत देखकर, पूछकर लिखो। यह कार्य उपन्यास लेखन से कम रोचक न होगा। बोलो, तैयार हो?'
यह सोचकर रोमांच होता है कि उस समय मैं २ साल का रहा हूँगा। यह पत्र मैंने 'वसुधा' में बरसों बाद पढ़ा। सच मानिए, जनसत्ता 'सबरंग' के लिए यह काम मैं साल २००० के पहले सीमित अर्थों में सम्पन्न कर चुका था। मेरा 'लोग हाशिये पर' स्तंभ इसी तरह के चरित्रों पर आधारित था। उसके कुछ चुने हुए चरित्रों को आप सबसे मिलवाने की तमन्ना है 'तलछट' नाम से। तो काम पर लगा जाए?
गुरुवार, 29 नवंबर 2007
आभास
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साथियो, इस बार कई दिन गाँव में डटा रहा. ठंड का लुत्फ़ उठाया. 'होरा' चाबा गया. भुने हुए आलू और भांटा (बैंगन) का भरता खाया गया. लहसन ...
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इस बार जबलपुर जाने का ख़ुमार अलग रहा. अबकी होली के रंगों में कुछ वायवीय, कुछ शरीरी और कुछ अलौकिक अनुभूतियाँ घुली हुई थीं. संकोच के साथ सूचना ...