मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

अबोध, मूर्ख और भावुक होती है जनता!

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१२

(अब तक आपने पढ़ा कि समाज से अलग, निस्संग जीवन व्यक्ति के लिए असहनीय होता है. अब आगे...)

संग साथ की प्रवृत्ति सहजात होती है, मनोविज्ञान में इसे सामाजिक प्रवृत्ति कहा जाता है. मनुष्य ही क्यों, चींटियाँ, मधुमक्खियाँ, मछलियाँ, चिडियाँ, हाथी, हिरण, वानर इत्यादि अनेक प्राणियों में एकजुट होकर रहने की सहजात प्रवृत्ति है. यह भाव ही सामाजिक बन्धन का आधार है.

दैहिक सानिध्य के अलावा भी दूसरों से एकात्म-बोध की अनुभूति हो सकती है. संन्यासी या क्रांतिकारी, निर्जन कक्ष में, निस्संग होते हुए भी दूसरों के साथ भावनात्मक सम्पर्क रखते हैं. ईश्वर, धर्म, देशप्रेम, और राष्ट्रीयता की भावना इत्यादि आदर्शों और विश्वास से भी कई लोगों के हृदय में भाईचारे की भावना पैदा होती है तथा उससे प्रेरित हो जीवन उत्सर्ग कर पलायन और निस्संगता भोगते हैं. लेकिन भावनात्मक बोध लुप्त होते ही मनोबल क्षीण पड़ता जाता है. उसी तरह भावनात्मक संबंधों के अभाव में, भीड़ में रहकर भी कोई अकेला महसूस कर सकता है. जिनके मन में ईर्ष्या-द्वेष के अलावा कुछ नहीं होता, वे हजारों की भीड़ में रहकर भी अकेले रहते हैं.

बुर्जुआ समाज में व्यक्ति दिनों-दिन अकेला और असहाय होता जा रहा है, सहयोगिता की भावना लुप्तप्राय है. जिस कार्य में समष्टिगत स्वार्थ होता है, वहाँ सभी का एक ही लक्ष्य होता है तथा स्वभावतः सहयोगिता का भाव रहता है. लेकिन जहाँ हरेक दूसरे का शत्रु है, दूसरे को परास्त कर प्रतियोगिता में आगे जाना है वहाँ सहयोगिता कैसे होगी? हालांकि कई संगठित प्रतिष्ठान आदि हैं, लेकिन उनका उद्देश्य भी किसी दूसरे प्रतिष्ठान को पराजित करना है. इस समाज में सामाजिक दायित्व पालन करने का आवाहन, जो प्रायः नेताओं के भाषणों में होता है, छलना मात्र है, प्रतिपक्ष को विभ्रांत करने का कौशल है. सहयोगिता के परदे के पीछे सभी प्रतियोगी और अकेले हैं.

बुर्जुआ समाज में सभी युद्धजीवी हैं. सभी एक दूसरे को धकियाते हुए, उद्विग्न, भयातुर और असुरक्षित हैं. गरीब की चिंता चूल्हा जला पाने की है, नौकरी वालों को छंटनी का भय है, अमीर को प्रतियोगिता और मुद्रास्फीति से बाज़ार मंदा होने की चिंता है, कामगार को हड़ताल की आशंका है. बुर्जुआ, साम्यवादियों के आक्रमण से भयभीत हैं, यहाँ तक कि स्वदेशी सरकार सब कुछ जब्त कर सकती है, यह निरंतर भय का कारण है.

आज शांति है तो कल युद्ध आरंभ हो सकता है. विद्रोह और दंगे हो सकते हैं. आज के मित्र देश, कल शत्रु हो सकते हैं. अस्थिरता इस समाज की विशेषता है. रोज़ नए फैशन, नए विचार आते-जाते हैं, सरकारों का उत्थान-पतन हो रहा है, एक तानाशाह दूसरे को हटा रहा है, दूसरा तीसरे को, वर्ष भर नए क़ानून बनते जाते हैं, चीज़ों के दाम बढ़ते जाते हैं, रुपयों के कमते जाते हैं, आज शिक्षानीति तो कल अर्थनीति में बदलाव आ रहे हैं.

कुछ समझ पाने से पहले हर व्यवस्था, दूसरी का विकल्प बन जाती है. आदमी की मानसिकता समुद्र के तूफान में फंसी नौका के नाविक जैसी है. इस अस्थिरता से मुक्ति की उम्मीद में जनता तानाशाहों की शरणागत होती है. हजारों वर्षों की लड़ाई के बाद जिन नागरिक अधिकारों का अर्जन जनता ने किया है उसे इतनी सहजता से उन्मादग्रस्त और हिंसक तानाशाहों के हाथों विसर्जन की यह प्रक्रिया विस्मयकारी है.

एरिक फ्रॉम ने कहा है कि बुर्जुआ समाज में सुरक्षा का अभाव और निरंतर अनिश्चितता की पीड़ा की व्याकुलता से ही फासिज़्म पैदा होता है. किसी भी चालाक भाग्यान्वेशी के संकट मोचन का झूठा आश्वासन देते ही, जनता उसके पीछे यों दौड़ती है, जैसे रेगिस्तान में मृगतृष्णा के पीछे प्यासा. स्वभावतया जनता अबोध, मूर्ख और भावुक होती है. जितना विवेक जनता के पास है, वह भी महाप्रलय के परिकल्पित भय से लुप्तप्राय है.

बुर्जुआ समाज में व्यक्ति स्वातंत्र्य, सुरक्षा के एवज में मिला है. प्राचीनकाल में व्यक्तित्व के विकास में कई अतार्किक , अन्यायपूर्ण और अलंघनीय बाधाएं थीं. जो जिस जति, श्रेणी, कुल या गोत्र में जन्म लेता, उसे उसके दायरे से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी. पूंजीवाद ने इन सभी धारणाओं पर झाड़ू फेर दी. अब चांडाल-पुत्र में योग्यता हो तो वह शिक्षक हो सकता है, ब्राम्हण मछली बेच सकता है. बदनामी का डर नहीं है. अपनी सुविधा के हिसाब से काम कीजिये. लेकिन यह परिस्थिति कुछ ऐसे पैदा हुई कि सर का दर्द दूर करने के लिए उसे काट दें.

बहुतों की रूचि के मुताबिक काम नहीं जुटता है. योग्यता और रूचि के अनुसार काम न होने पर व्यक्ति क्या करेगा? वह भी न मिले तो? बेकार बैठे हुए व्यक्ति-स्वातंत्र्य का 'आनंद' ही लेगा. करोड़ों बेकार घूमते हैं. पूंजीवाद एक हाथ से देकर दूसरे से दुगुना लेता है. स्वाधीनता दी है, जीविका का निश्चित उपाय और सुरक्षा नहीं दी है. इससे जनता में अस्थिरता पैदा हुई है जो प्राचील काल में नहीं थी.

'पहल' से साभार

(अगली किस्त में जारी...)

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