रविवार, 20 अप्रैल 2008

'रिजेक्ट माल' में छपे लेख का जोड़ उर्फ़ भय को भूत न बनाएं

जिन मानसिक-शारीरिक बीमारियों को लोग भूत लग जाना समझ लेते हैं, उसका खुलासा दो-तीन घटनाओं के माध्यम से लेखक ने करने की कोशिश की है। लेकिन ये घटनाएँ, ऐसा लगता है कि एक थीम को किसी तरह साबित कर देने की जिद के तहत घटी हैं.

दरअसल लेख में आपकी मूल स्थापना से मैं सहमत हूँ कि भूत-प्रेत का हव्वा खड़ा करके सदियों से चालाक लोग अशिक्षित (और कई बार तो श्रेष्ठी वर्ग को भी) लोगों को ठगते एवं उनका शोषण करते रहे हैं। यह शोषण कई स्तरों पर होता आया है., लैंगिक शोषण भी.

आपको आश्चर्य होगा कि भारत में बौद्ध धर्म के पतन का एक प्रमुख कारण यह भी था। ये लोग उत्तर वैदिककाल की जिस बुराई के विरोध में पनपे थे, उसी का शिकार हो गए. अधिकांश बौद्ध मठ तंत्र-मन्त्र, जादू-टोना, भोगविलास का अड्डा बन गए थे. मठों में महिलाओं के प्रवेश ने धर्म का पतन और तीव्र कर दिया. अथर्ववेद के तंत्र-मन्त्र-यंत्र से घबराकर अधिकांश जनता जिस सरल धर्म की तलाश में बौद्ध धर्म की शरण में आयी थी, बौद्धों ने उसे फिर उसी जटिल हिन्दू धर्म के जंजाल में धकेल दिया था, जहाँ अंधविश्वास थे और तंत्र-मन्त्र के डरावने कर्मकांड भी. पतन की बाकी बातें राजनीतिक तथा सत्ता के कुचक्रों का नतीजा थीं.

लेख में अगर भूत-प्रेत की अवधारणा का चिट्ठा खोला जाता और इस अवधारणा की मौजूदगी की जेनुइन वजहें तलाशी जातीं तो संभवतः कई दिलचस्प बातें सामने आतीं।

याद आता है कि किस तरह एक गुरु घंटाल नागपुर से एक जज की बीवी को यह यकीन दिलाकर भगा ले गया था कि वह जज की बीवी के पूर्व जन्म में उसका पति था। और जज ने यकीन भी कर लिया था. संभवतः भूत-प्रेतों की मौजूदगी स्वीकारने के लिए दिमाग ऐसी ही किसी अवस्था में चला जाता होगा. ऐसे ढेरों उदाहरण समाज में आपको मिल जायेंगे. सम्मोहन भी इसका एक रूप है.

बचपन में कई बार मुझे ऐसा लगा भी कि 'श्श्श्श् कोई है' ...तो बड़े-बूढ़ों ने सदा यही कहा कि यह मन का भ्रम है। भूत-प्रेत नहीं होते. अगर वे मुझे ओझा या गुनिया के पास झाड़-फूंक के लिए पकड़ ले जाते तो मैं जिंदगी भर 'धजी को सांप' समझता रहता. लेकिन इस विश्वास का बीज बचपन में ही नष्ट कर दिया गया. बाद में कभी इस तरह के ख़याल का पौधा नहीं उगा.

आज पत्र-पत्रिकाओं, नाना प्रकार के टीवी चैनलों तथा सम्पर्क-अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों के ज़रिये हमारे बीच भूत-प्रेतों की दुनिया आबाद की जा रही है। बच्चों के कोमल दिमाग पर इसका क्या दुष्प्रभाव पड़ता है, कभी सोचा है? आप गौर करेंगे कि भूत-प्रेतों और जिन्नात की दुनिया वाले रिसाले उन लोगों के बीच ज्यादा खपते हैं जिनका विकसित और आधुनिक दुनिया से ज्यादा लेना-देना नहीं होता. सारा बिजनेस उसी बंद समाज से चलता है. किस्मत बदलने के लिए तांत्रिक की अंगूठी, बाज़ का पंजा, मर्दानगी बढ़ाने के लिए शिलाजीत जैसी अनेक चीजें वहीं खपती है. लेकिन मार्केट बढ़ाने के लिए जरूरत है कि यह तिलिस्म वृहत्तर शहरी समाज को भी अपनी गिरफ्त में ले ले. आश्चर्य की बात नहीं है कि आजकल अधिकांश हिन्दी चैनल शाम ढलते ही रामसे की फिल्मों के सेट में तब्दील हो जाते हैं.

इन भूत-प्रेत आधारित कार्यक्रमों (क्रियाकर्मों पढ़ें) को देखने के बाद बच्चों के मन पर क्या बीतती होगी? क्या बड़ा होकर वे भूत-प्रेत की संकल्पना से मुक्त हो सकेंगे? और फिर वे अपने बच्चों को क्या दे जायेंगे? यह सही है कि अन्य मनोविकारों की ही तरह मनुष्य के मन में भय उपस्थित रहता है. काम, क्रोध, मद लोभ, ईर्ष्या की तरह ही भय भी हमारे 'सॉफ्टवेयर' में 'इनबिल्ट' है. परन्तु मित्रो, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम भय को भूत न बनाएं.

3 टिप्‍पणियां:

  1. विजयशंकर जी, बात को आगे ले जा कर आपने विमर्श के दायरे केा आगे बढ़ाया है जो सराहनीय है। वाकई भूत प्रेतों के नाम पर महिलाओं (या बच्चों और पुरूषों) के शोषण के पीछे एक बड़े वर्ग की एक प्रकार की वीभत्स और भयाग्रस्त मानसिकता काम करती है। इससे निजात पाना जरूरी है।

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  2. विजय जी आपकी बात मैं समझ नहीं पाया कि आख़िर आपको ऐसा क्यों लगा कि मैंने अपने अनुभव किसी बात को साबित करने की जिद में लिखे हैं. दरअसल, मैनें भूतों का मेला के बारे में पूजा के ब्लौग पर पढ़ा तो मैनें फ़ोन कर व्यक्तिगत रूप से उन्हें अपने अनुभव के बारे में बताया. फिर मैनें सोचा कि अपने अनुभवों को ज़्यादा लोगों से बांटना चाहिए, इसलिए इसे रेजेक्ट्माल पर डाल दिया. इसमें किसी बात को साबित करने की जिद तो बिल्कुल नहीं थी. मुझे जो लगा, सहज-सरल रूप में लिख दिया. भूतों के पीछे के मनोविज्ञान के सन्दर्भ में कई बातें हो सकती हैं, मसलन रूढीयाँ, अशिक्षा, आदि आदि. विजय जी अगर आप बात को तफसील से समझाते तो मुझे पता चल पाता कि ये बातें आख़िर आपको जिद के तहत लिखी हुई क्यों लगी और शायद मैं अपनी गलती को सुधारने की कोशिश कर पाता. अभी बस इतना ही. वैसे मैं एक बार फ़िर साग्रह कह रहा हूँ कि ये लिखा हुआ जिद के तहत नही था. अगर आपको ऐसा लगा तो ये मेरे लेखन की खामी है, नीयत की खोट नहीं.

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  3. bilkul sahi baat kah rahe hain aap. news channels mein bhi is tarah ki bhoop pret ghatnaon ko dikhaya jaa raha hai aur baad mein wah ka khandan bhi nahin karte. nischit hi baccho ke komal man par iska asar padta hai.maine haal mein bahut si ghunghruon wali pajeb pahni the, mere ghar me bacche manjulika bol ke aise saham gaye ki mujhe unhein samjhane aur unka dar dooor karne mein kaafi waqt lag gaya.

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