लोकसभा में २२ जुलाई २००८ का ड्रामा देखने का रोमांच ख़त्म हो गया है. दरअसल अगर जासूसी फ़िल्म की कहानी का अंत बता दिया जाए तो फ़िल्म क्या देखनी! लेकिन वह अंत बताने से पहले मैं अपने दिल की बात करना चाहूंगा
२० और २१ जुलाई को मैं ठाणे लोकसभा क्षेत्र में था. वहाँ मैंने घूम-घूम कर कई लोगों से बातचीत की. घोड़बन्दर रोड गया, भायंदर गया, मीरा रोड में थमा, ठाणे शहर में घूमा, कलवा गया, दिवा गया, कल्याण फिरा, मुम्ब्रा में तहकीकात करता रहा. एटमी करार के बारे में बात की, मंहगाई के बारे में पूछा. लोगों को एटमी डील के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था, लेकिन मंहगाई के बारे में सबने शिकायत की. अलबत्ता मीरा रोड और मुम्ब्रा में किसी ने मुसलमानों को यह बता रखा था कि यह डील मुसलमानों के खिलाफ़ है क्योंकि बुश के साथ हो रही है. बुश कौन है, इस पर ज्यादातर लोगों ने चुप्पी साध रखी थी. इसका मतलब पता ही नहीं! (यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैंने जिन लोगों से बात की उनमें से ९०% लोग सड़क पर मिले.)
इस पर मैं लोगों में धंसा और मैंने लोगों से जानना चाहा कि क्या किसी राजनीतिक दल ने, उसके किसी भी स्तर के पदाधिकारी ने राय ली है कि लोकसभा में विश्वासमत के दौरान क्षेत्र का सांसद एटमी डील पर किस गठबंधन की तरफ मतदान करे? एनडीए समेत नए गठजोड़ की तरफ या यूपीए की तरफ? जवाब था कि इस बारे में वे लोग सिर्फ टीवी चैनलों में देख-सुन रहे हैं या अख़बारों में पढ़ रहे हैं.
मैंने पूछा कि सांसद महोदय आपसे आख़िरी बार कब मिले थे या आपने आख़िरी बार कब उन्हें देखा था, तो जवाब मिला कि चुनाव के वक्त वोट माँगने वह कहीं-कहीं सचमुच पहुंचे थे. (चूंकि ठाणे लोकसभा चुनाव २ माह पहले ही हुआ है इसलिए यहाँ आप थोड़ी छूट दे सकते हैं. प्रकाश परांजपे के देहांत के बाद उनके सुपुत्र शिवसेना के सहानुभूति टिकट पर चुनाव जीते हैं).
मेरा कहना यह है कि जब सांसद वोट माँगने घर-घर जा सकते हैं तो एटमी डील जैसे गंभीर मुद्दे पर घर-घर से राय क्यों नहीं ले सकते? या अपने पदाधिकारियों से राय क्यों नहीं मंगा सकते? उसके बाद उन्हें अपना मन बनाने का पूरा अधिकार है. (कुछ आशंकाओं-कुशंकाओं सहित).
हम सभी जानते हैं कि हमारा सांसद चुन कर जब गया था तब मुद्दे कुछ और थे, विश्वासमत के दौरान मुद्दा कुछ और है. क्या एनडीए या यूपीए के सांसद अपने मतदाताओं से यह पूछना जरूरी नहीं समझते कि आख़िर एटमी डील पर वे क्या सोचते हैं? या फिर क्या ये सांसद यह समझते हैं कि उनके मतदाताओं की इतनी औकात है कि वे एटमी डील पर अपनी कोई राय दे सकें? जब ये लोग चुने गए थे तब एटमी डील मुद्दा नहीं था, ऐसे में क्या इनका अपने मतदाताओं से यह पूछना लाजिमी नहीं है कि इस मुद्दे पर वे क्या करें?
लोकसभा में चुन कर गए सांसदों को अपना मत बेचने का क्या अधिकार है? क्या इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि चुन कर जाने के बाद उन्होंने अपने लाखों मतदाताओं को धर बेचा है? हो सकता है कि मन्दिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम जैसे भावनात्मक मुद्दों पर सांसद चुन कर भेजने वाला मतदाता एटमी डील पर अपनी कुछ और राय रखता हो! ऐसे में नाकारा सांसदों को संसद से वापस बुलाने की जनता की पहल का विचार इन सौदेबाजों की नज़र में कितना निरर्थक है, यह सहज ही समझ में आता है.
और अब फ़िल्म का अंत...
मेरे एक दिल्ली स्थित सूत्र ने बताया है कि अजित सिंह और देवगौड़ा को यह सौदा करके बीएसपी खेमे में भेजा गया है कि तुम्हारे बेटे का मंत्री पद पक्का है, कल तक नाराज़ होने का अभिनय करो ताकि दुश्मन मुगालते में रहे. लेकिन इंतजाम इतना हो चुका है कि देवगौड़ा के बगैर भी मनमोहन सरकार नहीं गिरनेवाली.
अब तेल देखो और तेल की धार देखो. कल मिलेंगे ...शाम को!