सोमवार, 24 दिसंबर 2007

याद हैं त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार, शमशेर

दादा कवि त्रिलोचन के जाने से उस युग का पटाक्षेप हो गया है जिसने छायावादी दिग्गजों के बाद आधुनिक हिन्दी कविता की बागडोर थाम रखी थी. पन्त, प्रसाद, निराला और महादेवी के बाद जब हम नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार और शमशेर की कविता देखते हैं तो एक आश्वस्ति होती है कि समर्थ परम्परा की रास समर्थ कवियों के हाथ में आयी थी.
त्रिलोचन के जाने के बहाने मैं यहाँ उस महान चौकड़ी को उनकी एक-एक कविता के साथ याद कर रहा हूँ। तो सबसे पहले त्रिलोचन जी-

एक सॉनेट

ताज्जुब है मुझको त्रिलोचन कैसे इतना
अच्छा लिखने लगा? धरातल उसके स्वर का
तिब्बत के पठार-सा ऊंचा अब है. जितना
ही गुनता हूँ इस पर, कुछ रहस्य अन्दर का
मुझे भासने लगता है. यह उसके बस का
काम नहीं है. होगा कोई और खिलाड़ी
जिसका यह सब खेल है, मुझे तो अब चस्का
लगा रहस्योद्घाटन का है. खूब अगाड़ी
और पिछाड़ी देख-भालकर बात कहूंगा
मैंने तो रहस्य अब तक कितनों के खोले
हैं. न इस नई धारा में निरुपाप बहूंगा
मेरे आगे बड़ों-बड़ों के धीरज डोले
एक फिसड्डी आकर अपनी धाक जमाये
देख नहीं सकता हूँ मैं यों ही मुंह बाए।


(रचनाकाल : मई १९५३)

नागार्जुन की 'अकाल और उसके बाद'


कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास.
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत4 रही शिकस्त.
दाने आए घर के अन्दर कई दिनों के बाद
धुआं उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद.
(रचनाकाल: मार्च १९५२.)


केदारनाथ अग्रवाल की 'बागी घोड़ा'

मैंने बागी घोड़ा देखा
आज सबेरे
उछल-कूद करता, दहलाता-
जोरदार हड़कंप मचाता.
गुस्से की बिजली चमकाता-
लप-लप करती देह घुमाता-
पट-पट अगली टांग पटकता-
खट-खट पिछली टांग पटकता-
कड़ी सड़क की
कड़ी देह को
कुपित कुचलता
मुरछल जैसी देह घुमाता-
बड़ी-बड़ी क्रोधी आंखों से-
आग उगलता-
ऊपर-नीचे के जबड़ों के लंबे-पैने दांत निपोरे,
व्यंग भाव से, ऐसे हंसता
अट्टहास करता हो जैसे.
पशु होकर भी नहीं चाहता पशुवत जीना,
मानववादी मुक्ति चाहता मानव से अब;
चकित चमत्कृत सबको करता,
मैंने बागी घोड़ा देखा,
आज सबेरे,
चौराहे पर।

(रचनाकाल: १९५४)

और आख़िर में शमशेर की 'महुवा'

यह अजब पेड़ है जिसमें कि जनाब
इस कदर जल्द कली फूटती है
कि अभी कल देखो
मार पतझड़ ही पतझड़ था इसके नीचे
और अब
सुर्ख दीये, सुर्ख दीयों का झुरमुट
नन्हें-नन्हें, कोमल
नीचे से ऊपर तक-
झिलमिलाहट का तनोवा मानो-
छाया हुआ है. यह अजब पेड़ है.
पत्ते कलियाँ
कत्थई पान की सुर्खी का चटक रंग लिए-
इक हंसी की तस्वीर-
(खिलखिलाहट से मगर कम-दर्ज़े)
मेरी आंखों में थिरक उठती है.
मुझको मालूम है, ये रंग अभी छूटेंगे
गुच्छे के गुच्छे मेरे सर पै हरी
छतरियाँ तानेंगे: गुच्छे के गुच्छे ये
सरसब्ज चंवर झूमेंगे,
फ़िर भी, फ़िर भी, फ़िर भी
एक बार और भी फ़िर सावन की घनघोर घटाएं
-आग-सी जैसे लगी हो हर-सू--
सर पै छा जायेंगी:
कोई चिल्ला के पुकारेगा कि देखो, देखो
यही महुवे का महावन है!

(रचनाकाल: मई १९५३)


2 टिप्‍पणियां:

  1. मैं आपका और आपके ब्‍लॉग का तहेदिल से अभारी हूं, आपके माध्‍यम से मुझे एक साथ कई महान कवियों को पढ़ने का मौका मिला, यहां तो हिन्‍दी कवितओं की किताबों का अकाल है

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