रविवार, 13 जनवरी 2008

हत्यारों का मनोविज्ञान


बुर्जुआ समाज और संस्कृति-२


...(गतांक से आगे)

मालिक की इच्छा का नकार मौत का बायस भी बन सकता है. अमेरिका के वैज्ञानिक ओपन हाइमर को हाइड्रोजन बम बनाने के विरुद्ध राय देने पर अपमानित होना पड़ा था. रूसी सरकार को बम बनाने का फार्मूला बताने के आरोप में रोजनबर्ग दम्पत्ति को झूठे मामले में फंसा कर मृत्युदंड दिया गया था. सरमायेदारों के स्वार्थ के विरुद्ध किसी काम को अंजाम देना इस युग में किसी भी वैज्ञानिक के लिए सम्भव नहीं है.

ध्वंस के लिए विज्ञान की प्रयुक्ति का यह तर्क सही होते हुए भी, बुद्धिजीवियों द्वारा अपनी आत्मा बंधक रखने के साथ इसका सम्बन्ध पर्याप्त नहीं है. सारे बुद्धिजीवी सचेत रूप से शोषण के पक्ष में नहीं होते. न्याय और सदाचार का पक्ष उपेक्षित होने से प्रायः सभी कुंठित होते हैं, कई बार विद्रोह भी करते हैं.

न्याय का पक्ष लेना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है. लेकिन दुनिया में मत्स्य-न्याय चला आ रहा है क्योंकि न्याय-अन्याय की धारणाएं सभी की एक नहीं होती हैं. किसी को हत्यारे को फांसी होने पर खुशी होती है तो दूसरा सोचता है वह अकेला ही दोषी नहीं है. हत्यारे भी इसी व्यवस्था के अंग हैं सो किसी एक को फांसी देने से प्रतिहिंसा ही चरितार्थ होती है, न्याय नहीं. बम फेंकने वाले न्याय, धर्म, सत्य और मानवाधिकार की रक्षा का दावा करते हैं.

आदर्श की प्रेरणा ही मनुष्य के आचरण की नियामक शक्ति होती है- यह प्रेरणा किसी भी मनुष्य को अमेरिकी लोगों से ज्यादा हिंसक और निष्ठुर बना सकती है. मनुष्य सिर्फ़ पैसों के लिए ही निष्ठुर आचरण नहीं करता है. स्तालिन के आदेश पर दो करोड़ रूसी नागरिकों की हत्या हुई थी, जबकि उन्हें पैसे का लेशमात्र लोभ नहीं था. उनके कठोर समालोचक रॉबर्ट कान्क्वेस्ट ने लिखा है-

"क्रेमलिन के महल में नौकरों के अति-साधारण कमरे में, साधारण मनुष्य की तरह स्तालिन रहते थे. उनके जीवन में भोग-विलास या अर्थ-लिप्सा का लेशमात्र स्थान नहीं था. उनका मासिक वेतन एक हज़ार रूबल था जो कि चालीस डॉलर के बराबर होता था. उनके सचिव इसी रकम से उनके घर का भाड़ा, पार्टी का चन्दा, इत्यादि सारे खर्च चलाते थे।" (रॉबर्ट कान्क्वेस्ट, द ग्रेट टेरर, मैकमिलन एंड कम्पनी, तीसरा संस्करण १९५९, पेज संख्या ६१)

स्तालिन ने अपनी कन्या के लिए कोई भी संपत्ति नहीं छोड़ी. माओ त्से तुंग के इशारे पर काफी लोगों की हत्याएं हुईं. लेकिन वह भी हर लोभ से परे थे तथा निहायत सादा जीवन व्यतीत करते थे. हिटलर ने साठ लाख से ज्यादा यहूदियों की न्रशंस हत्याएं कीं; उसका भी यह काम किसी आर्थिक लोभ से प्रेरित नहीं था.

मध्ययुग में सांसारिक सुखों से निस्पृह लोगों ने धर्मप्रचार के 'महान' उद्देश्य से हत्या और ध्वंस का तांडव किया था. न्रशंसता के लिए जो नायक इतिहास में प्रसिद्ध हैं, उनमें कम लोगों का ही उद्देश्य आर्थिक था. आदर्श से प्रेरित होकर ही मनुष्य हँसते-हंसते मारता है और मरता भी है. ऐसा कर वह अपने कर्तव्य का पालन करता है. (इस प्रेरणा के नियामक कारणों की कुछ व्याख्या आगे है.)

आदमी का हृदय ईश्वर, धर्म, पाप-पुण्य, सुनीति और दुर्नीति विषयक धारणाएं, समाज के भावाकाश और सांस्कृतिक वातावरण से साँस की तरह ग्रहण करता है. जैसे स्पंज पानी सोखता है, उसी तरह यांत्रिक प्रक्रिया में यह होता जाता है. इसीलिए हर व्यक्ति अपने समय की संतान होता है- समय-धर्म के प्रभावाधीन. समाज में प्रचलित नीतियों के प्रयोग से वह भले बुरे का विचार करता है. श्रेष्ठ मनीषियों से भी इसमें अधिक उम्मीद करना व्यर्थ है. आज से हजारों साल बाद सामाजिक नीतियाँ क्या होंगी, इसकी धुंधली-सी धारणा भी मुश्किल है.

"पहल' से साभार
(शेष अगली किस्त में)...

2 टिप्‍पणियां:

  1. स्टालिन, माओ और हिटलर को किसी भी संदर्भ में समानार्थी प्रस्तुत करना कत्तई उपयुक्त नहीं। बल्कि बचकाना लगा। पता नहीं इसके पीछे उद्देश्य क्या है?

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  2. दीनबंधु,
    इन तीनों का नाम महज इनसे जुड़ी हत्याओं के सिलसिले में लिया गया है. इसमें वामपंथ या नाज़ीवाद का ज़िक्र नहीं है. उद्देश्य भी उन्हीं पंक्तियों में खुला कर दिया गया है.... और बचकाने लोग तो बचकानी बात ही कर सकते हैं. फिर भी अनेकानेक धन्यवाद!

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