शिवसेना ने जो बोया था, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना उसे काटने की कोशिश कर रही है. राज ठाकरे की पैदाइश से भी पहले शिवसेना ने 'उठाओ लुँगी, बजाओ पुंगी' का नारा उत्तर भारतीयों के खिलाफ नहीं बल्कि पिछली सदी के सातवें दशक में दक्षिण भारतीयों के ख़िलाफ़ दिया था और हमले किए थे. इसी की चपेट में जोगेश्वरी और गोरेगाँव के तबेले भी आए थे और लोगों को जान बचाकर उत्तर-दक्षिण भारत भागना पड़ा था.
'लाल बावटा' की तब बड़ी ताकत थी. यह मिलों का दौर था. वामपंथी यूनियनें तगड़ी थीं. युवा बाल ठाकरे ने 'फ्री प्रेस जनरल' में कार्टून बनाना छोड़कर मराठी अस्मिता के नाम पर शिवसेना का गठन किया. कहने वाले कहते हैं कि यह कांग्रेस की शह पर हुआ था ताकि वाम पंथियों की ताकत मुम्बई और महाराष्ट्र से ख़त्म की जा सके. असलियत जो भी रही हो, नतीजा वही हुआ कि वाम पंथी ताकतों का मुबई से सफाया हो गया, परेल इलाके में शक्तिशाली वाम पंथी नेता की हत्या कर दी गयी. और यूनियनों पर शिवसेना का नियंत्रण होने लगा.
शिवसेना और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना की हरकतों, हालत और हालात में काफी समानताएं हैं. शिवसेना भी तब सड़कों पर नंगा नाच करती थी, बाद में भी करती रही; मनसे भी कर रही है. दोनों पार्टियां 'मराठी माणूस' की राजनीति करने वाली हैं. शिवसेना की हिंसा को भी कांग्रेस की शह बताया जाता था और आज भी लोग यही समझ रहे हैं कि मनसे के कार्यकर्ता जब गरीब टैक्सी वालों तथा पानी पूरी, वडा पाव वालों के साथ मार पीट कर रहे हैं तो कांग्रेस की शह पर ही पुलिस मूक तमाशा देखती रहती है.
इस विश्लेषण में हम यह भूल जाते हैं कि पुलिस कहीं की भी हो, ख़ुद आगे बढ़कर दंगाइयों को नहीं रोकती. यह एक आम पुलिसिया प्रवृत्ति है. यूपी, बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, गुजरात.. जहाँ कहीं भी भीड़ की हिंसा देखी गयी है वहाँ पुलिस मूक दर्शक ही रही है. सब कुछ निबट जाने तथा 'ऊपर' से दबाव पड़ने के बाद पुलिस लाठियाँ भांजती नज़र आती है, मुबई में ही यही देखा गया.
जो लोग मनसे विरुद्ध एक 'उत्तर भारतीय मनसे' बनाने की वकालत कर रहे हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि ज़बानी ज़मा खर्च करना सुरक्षित रहने तथा लोगों की नज़र में वीर बनने का तरीका हो सकता है लेकिन सड़क पर उतर कर लाठी गोली चलाना काफी मुश्किल काम है. वह भी ऐसी धरती पर जहाँ का आपने अन्न खाया है, जहाँ की कमाई से आप अपने बीवी-बच्चे पाल रहे हैं.
ऐसे लोगों से मैं पूछता हूँ कि जब मनसे ने रेलवे भर्ती बोर्ड की मुम्बई परीक्षा देने आये हजारों परप्रांतीय छात्रों के साथ कल्याण में मारपीट की थी तब इन्होने क्यों कोई जुलूस या मोर्चा नहीं लिकाला? पिछले साल जब सब्जियों की खेती करने वाले निरीह बिहारी मजदूरों के साथ गंदे पानी का इस्तेमाल करने का आरोप लगाकर खेतों में जाकर मारपीट की गयी थी तब ये कहाँ सो रहे थे?
...और जब यूपी-बिहार से आने वाली ट्रेनों से उतरने वाले गरीब लोगों के साथ रेलवे स्टेशनों पर पुलिसिया बर्ताव होता है तब किसी को बुरा क्यों नहीं लगता? कोई विवाद होने की सूरत में जब पुलिस वाले आपका 'उपनाम' देख कर रपट दर्ज करने या न करने का फैसला लेते हैं तब ये क्या करते हैं? राशन कार्ड बनवाने की लाइन में खड़े आदमी को यूपी-बिहार-बंगाल का होने की वजह से सरकारी कर्मचारी ही कैसी-कैसी गालियाँ देते हैं, कभी आपने सुना है? क्या यह सब आज शुरू हुआ है? मैंने ऊपर कहा है कि यह सब शिवसेना का बोया हुआ है. उसने महाराष्ट्र की पुलिस को अंग्रेजों के ज़माने की पुलिस (भारतीयों के ख़िलाफ़) बना दिया है.
'बड़े' लोग इसलिए भयभीत हैं कि कहीं यह मामला उनके घर तक न पहुँच जाए. अब तक गरीब पिटता रहा तो ठीक था. लेकिन अब पानी इनके सर से ऊपर बहने लगा है. ये लोग हिंसा का जवाब हिंसा से देने की बातें करने लगे हैं. लेकिन क्या इन्हें नहीं लगता कि जब हिंसा बढ़ेगी तो ये हवाई जहाज या रेल के एसी डिब्बे में घुसकर भाग खड़े होंगे और गरीब बेचारा सड़कों पर मारा काटा जायेगा. मेरे एक जान-पहचाने वाले उत्तर भारतीय ने दस साल पहले यहीं 'उत्तर सेना' बनायी थी और घाटकोपर की एक गंदी खोली में रहता था. उसने मध्य और पश्चिम रेलवे ट्रैक के बगल की दीवारें कई जगह 'उत्तर सेना' के बैनरों से पोत दी थीं. आज न उस ' शूरवीर' का कहीं पता है न उसकी सेना का.
हम सभी जानते हैं कि राज ठाकरे असंवैधानिक काम कर रहे हैं. उनका यह कदम देश को तोड़ने वाला है. उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल देना चाहिए. लेकिन उन हजारों लोगों का क्या करेंगे जो उनके पीछे इसी समाज में रह जायेंगे. राज ठाकरे किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि नफ़रत की उस राजनीति का नाम है जो भाषा, क्षेत्र, वर्ण, जाति और सम्प्रदाय के नाम पर भारतीय जनता को बांटने का काम करती है. यह भावना समूल नष्ट करने की जरूरत है.
और उन कांग्रेसी सरकारों का क्या करेंगे जो शिवसेना से लेकर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना तक बार-बार ऐसी असंवैधानिक गतिविधियों की देख-रेख करती रही हैं?
-विजयशंकर चतुर्वेदी.
मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008
अबोध, मूर्ख और भावुक होती है जनता!
बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१२
(अब तक आपने पढ़ा कि समाज से अलग, निस्संग जीवन व्यक्ति के लिए असहनीय होता है. अब आगे...)
संग साथ की प्रवृत्ति सहजात होती है, मनोविज्ञान में इसे सामाजिक प्रवृत्ति कहा जाता है. मनुष्य ही क्यों, चींटियाँ, मधुमक्खियाँ, मछलियाँ, चिडियाँ, हाथी, हिरण, वानर इत्यादि अनेक प्राणियों में एकजुट होकर रहने की सहजात प्रवृत्ति है. यह भाव ही सामाजिक बन्धन का आधार है.
दैहिक सानिध्य के अलावा भी दूसरों से एकात्म-बोध की अनुभूति हो सकती है. संन्यासी या क्रांतिकारी, निर्जन कक्ष में, निस्संग होते हुए भी दूसरों के साथ भावनात्मक सम्पर्क रखते हैं. ईश्वर, धर्म, देशप्रेम, और राष्ट्रीयता की भावना इत्यादि आदर्शों और विश्वास से भी कई लोगों के हृदय में भाईचारे की भावना पैदा होती है तथा उससे प्रेरित हो जीवन उत्सर्ग कर पलायन और निस्संगता भोगते हैं. लेकिन भावनात्मक बोध लुप्त होते ही मनोबल क्षीण पड़ता जाता है. उसी तरह भावनात्मक संबंधों के अभाव में, भीड़ में रहकर भी कोई अकेला महसूस कर सकता है. जिनके मन में ईर्ष्या-द्वेष के अलावा कुछ नहीं होता, वे हजारों की भीड़ में रहकर भी अकेले रहते हैं.
बुर्जुआ समाज में व्यक्ति दिनों-दिन अकेला और असहाय होता जा रहा है, सहयोगिता की भावना लुप्तप्राय है. जिस कार्य में समष्टिगत स्वार्थ होता है, वहाँ सभी का एक ही लक्ष्य होता है तथा स्वभावतः सहयोगिता का भाव रहता है. लेकिन जहाँ हरेक दूसरे का शत्रु है, दूसरे को परास्त कर प्रतियोगिता में आगे जाना है वहाँ सहयोगिता कैसे होगी? हालांकि कई संगठित प्रतिष्ठान आदि हैं, लेकिन उनका उद्देश्य भी किसी दूसरे प्रतिष्ठान को पराजित करना है. इस समाज में सामाजिक दायित्व पालन करने का आवाहन, जो प्रायः नेताओं के भाषणों में होता है, छलना मात्र है, प्रतिपक्ष को विभ्रांत करने का कौशल है. सहयोगिता के परदे के पीछे सभी प्रतियोगी और अकेले हैं.
बुर्जुआ समाज में सभी युद्धजीवी हैं. सभी एक दूसरे को धकियाते हुए, उद्विग्न, भयातुर और असुरक्षित हैं. गरीब की चिंता चूल्हा जला पाने की है, नौकरी वालों को छंटनी का भय है, अमीर को प्रतियोगिता और मुद्रास्फीति से बाज़ार मंदा होने की चिंता है, कामगार को हड़ताल की आशंका है. बुर्जुआ, साम्यवादियों के आक्रमण से भयभीत हैं, यहाँ तक कि स्वदेशी सरकार सब कुछ जब्त कर सकती है, यह निरंतर भय का कारण है.
आज शांति है तो कल युद्ध आरंभ हो सकता है. विद्रोह और दंगे हो सकते हैं. आज के मित्र देश, कल शत्रु हो सकते हैं. अस्थिरता इस समाज की विशेषता है. रोज़ नए फैशन, नए विचार आते-जाते हैं, सरकारों का उत्थान-पतन हो रहा है, एक तानाशाह दूसरे को हटा रहा है, दूसरा तीसरे को, वर्ष भर नए क़ानून बनते जाते हैं, चीज़ों के दाम बढ़ते जाते हैं, रुपयों के कमते जाते हैं, आज शिक्षानीति तो कल अर्थनीति में बदलाव आ रहे हैं.
कुछ समझ पाने से पहले हर व्यवस्था, दूसरी का विकल्प बन जाती है. आदमी की मानसिकता समुद्र के तूफान में फंसी नौका के नाविक जैसी है. इस अस्थिरता से मुक्ति की उम्मीद में जनता तानाशाहों की शरणागत होती है. हजारों वर्षों की लड़ाई के बाद जिन नागरिक अधिकारों का अर्जन जनता ने किया है उसे इतनी सहजता से उन्मादग्रस्त और हिंसक तानाशाहों के हाथों विसर्जन की यह प्रक्रिया विस्मयकारी है.
एरिक फ्रॉम ने कहा है कि बुर्जुआ समाज में सुरक्षा का अभाव और निरंतर अनिश्चितता की पीड़ा की व्याकुलता से ही फासिज़्म पैदा होता है. किसी भी चालाक भाग्यान्वेशी के संकट मोचन का झूठा आश्वासन देते ही, जनता उसके पीछे यों दौड़ती है, जैसे रेगिस्तान में मृगतृष्णा के पीछे प्यासा. स्वभावतया जनता अबोध, मूर्ख और भावुक होती है. जितना विवेक जनता के पास है, वह भी महाप्रलय के परिकल्पित भय से लुप्तप्राय है.
बुर्जुआ समाज में व्यक्ति स्वातंत्र्य, सुरक्षा के एवज में मिला है. प्राचीनकाल में व्यक्तित्व के विकास में कई अतार्किक , अन्यायपूर्ण और अलंघनीय बाधाएं थीं. जो जिस जति, श्रेणी, कुल या गोत्र में जन्म लेता, उसे उसके दायरे से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी. पूंजीवाद ने इन सभी धारणाओं पर झाड़ू फेर दी. अब चांडाल-पुत्र में योग्यता हो तो वह शिक्षक हो सकता है, ब्राम्हण मछली बेच सकता है. बदनामी का डर नहीं है. अपनी सुविधा के हिसाब से काम कीजिये. लेकिन यह परिस्थिति कुछ ऐसे पैदा हुई कि सर का दर्द दूर करने के लिए उसे काट दें.
बहुतों की रूचि के मुताबिक काम नहीं जुटता है. योग्यता और रूचि के अनुसार काम न होने पर व्यक्ति क्या करेगा? वह भी न मिले तो? बेकार बैठे हुए व्यक्ति-स्वातंत्र्य का 'आनंद' ही लेगा. करोड़ों बेकार घूमते हैं. पूंजीवाद एक हाथ से देकर दूसरे से दुगुना लेता है. स्वाधीनता दी है, जीविका का निश्चित उपाय और सुरक्षा नहीं दी है. इससे जनता में अस्थिरता पैदा हुई है जो प्राचील काल में नहीं थी.
'पहल' से साभार
(अगली किस्त में जारी...)
(अब तक आपने पढ़ा कि समाज से अलग, निस्संग जीवन व्यक्ति के लिए असहनीय होता है. अब आगे...)
संग साथ की प्रवृत्ति सहजात होती है, मनोविज्ञान में इसे सामाजिक प्रवृत्ति कहा जाता है. मनुष्य ही क्यों, चींटियाँ, मधुमक्खियाँ, मछलियाँ, चिडियाँ, हाथी, हिरण, वानर इत्यादि अनेक प्राणियों में एकजुट होकर रहने की सहजात प्रवृत्ति है. यह भाव ही सामाजिक बन्धन का आधार है.
दैहिक सानिध्य के अलावा भी दूसरों से एकात्म-बोध की अनुभूति हो सकती है. संन्यासी या क्रांतिकारी, निर्जन कक्ष में, निस्संग होते हुए भी दूसरों के साथ भावनात्मक सम्पर्क रखते हैं. ईश्वर, धर्म, देशप्रेम, और राष्ट्रीयता की भावना इत्यादि आदर्शों और विश्वास से भी कई लोगों के हृदय में भाईचारे की भावना पैदा होती है तथा उससे प्रेरित हो जीवन उत्सर्ग कर पलायन और निस्संगता भोगते हैं. लेकिन भावनात्मक बोध लुप्त होते ही मनोबल क्षीण पड़ता जाता है. उसी तरह भावनात्मक संबंधों के अभाव में, भीड़ में रहकर भी कोई अकेला महसूस कर सकता है. जिनके मन में ईर्ष्या-द्वेष के अलावा कुछ नहीं होता, वे हजारों की भीड़ में रहकर भी अकेले रहते हैं.
बुर्जुआ समाज में व्यक्ति दिनों-दिन अकेला और असहाय होता जा रहा है, सहयोगिता की भावना लुप्तप्राय है. जिस कार्य में समष्टिगत स्वार्थ होता है, वहाँ सभी का एक ही लक्ष्य होता है तथा स्वभावतः सहयोगिता का भाव रहता है. लेकिन जहाँ हरेक दूसरे का शत्रु है, दूसरे को परास्त कर प्रतियोगिता में आगे जाना है वहाँ सहयोगिता कैसे होगी? हालांकि कई संगठित प्रतिष्ठान आदि हैं, लेकिन उनका उद्देश्य भी किसी दूसरे प्रतिष्ठान को पराजित करना है. इस समाज में सामाजिक दायित्व पालन करने का आवाहन, जो प्रायः नेताओं के भाषणों में होता है, छलना मात्र है, प्रतिपक्ष को विभ्रांत करने का कौशल है. सहयोगिता के परदे के पीछे सभी प्रतियोगी और अकेले हैं.
बुर्जुआ समाज में सभी युद्धजीवी हैं. सभी एक दूसरे को धकियाते हुए, उद्विग्न, भयातुर और असुरक्षित हैं. गरीब की चिंता चूल्हा जला पाने की है, नौकरी वालों को छंटनी का भय है, अमीर को प्रतियोगिता और मुद्रास्फीति से बाज़ार मंदा होने की चिंता है, कामगार को हड़ताल की आशंका है. बुर्जुआ, साम्यवादियों के आक्रमण से भयभीत हैं, यहाँ तक कि स्वदेशी सरकार सब कुछ जब्त कर सकती है, यह निरंतर भय का कारण है.
आज शांति है तो कल युद्ध आरंभ हो सकता है. विद्रोह और दंगे हो सकते हैं. आज के मित्र देश, कल शत्रु हो सकते हैं. अस्थिरता इस समाज की विशेषता है. रोज़ नए फैशन, नए विचार आते-जाते हैं, सरकारों का उत्थान-पतन हो रहा है, एक तानाशाह दूसरे को हटा रहा है, दूसरा तीसरे को, वर्ष भर नए क़ानून बनते जाते हैं, चीज़ों के दाम बढ़ते जाते हैं, रुपयों के कमते जाते हैं, आज शिक्षानीति तो कल अर्थनीति में बदलाव आ रहे हैं.
कुछ समझ पाने से पहले हर व्यवस्था, दूसरी का विकल्प बन जाती है. आदमी की मानसिकता समुद्र के तूफान में फंसी नौका के नाविक जैसी है. इस अस्थिरता से मुक्ति की उम्मीद में जनता तानाशाहों की शरणागत होती है. हजारों वर्षों की लड़ाई के बाद जिन नागरिक अधिकारों का अर्जन जनता ने किया है उसे इतनी सहजता से उन्मादग्रस्त और हिंसक तानाशाहों के हाथों विसर्जन की यह प्रक्रिया विस्मयकारी है.
एरिक फ्रॉम ने कहा है कि बुर्जुआ समाज में सुरक्षा का अभाव और निरंतर अनिश्चितता की पीड़ा की व्याकुलता से ही फासिज़्म पैदा होता है. किसी भी चालाक भाग्यान्वेशी के संकट मोचन का झूठा आश्वासन देते ही, जनता उसके पीछे यों दौड़ती है, जैसे रेगिस्तान में मृगतृष्णा के पीछे प्यासा. स्वभावतया जनता अबोध, मूर्ख और भावुक होती है. जितना विवेक जनता के पास है, वह भी महाप्रलय के परिकल्पित भय से लुप्तप्राय है.
बुर्जुआ समाज में व्यक्ति स्वातंत्र्य, सुरक्षा के एवज में मिला है. प्राचीनकाल में व्यक्तित्व के विकास में कई अतार्किक , अन्यायपूर्ण और अलंघनीय बाधाएं थीं. जो जिस जति, श्रेणी, कुल या गोत्र में जन्म लेता, उसे उसके दायरे से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी. पूंजीवाद ने इन सभी धारणाओं पर झाड़ू फेर दी. अब चांडाल-पुत्र में योग्यता हो तो वह शिक्षक हो सकता है, ब्राम्हण मछली बेच सकता है. बदनामी का डर नहीं है. अपनी सुविधा के हिसाब से काम कीजिये. लेकिन यह परिस्थिति कुछ ऐसे पैदा हुई कि सर का दर्द दूर करने के लिए उसे काट दें.
बहुतों की रूचि के मुताबिक काम नहीं जुटता है. योग्यता और रूचि के अनुसार काम न होने पर व्यक्ति क्या करेगा? वह भी न मिले तो? बेकार बैठे हुए व्यक्ति-स्वातंत्र्य का 'आनंद' ही लेगा. करोड़ों बेकार घूमते हैं. पूंजीवाद एक हाथ से देकर दूसरे से दुगुना लेता है. स्वाधीनता दी है, जीविका का निश्चित उपाय और सुरक्षा नहीं दी है. इससे जनता में अस्थिरता पैदा हुई है जो प्राचील काल में नहीं थी.
'पहल' से साभार
(अगली किस्त में जारी...)
सोमवार, 4 फ़रवरी 2008
हिन्दी में आधुनिक ज्ञान के शास्त्र तो लिखिए!
पिछले दिनों 'रिजेक्ट माल' और 'कबाड़खाना' में भाषा पर चर्चा चली। इसमें भाई इरफान, अभय तिवारी और उदयप्रकाश से लेकर किसी जनसेवक जी महाराज तक के विचार आप जान चुके। मैंने भी हिन्दी के प्रयोग को लेकर कुछ फुटकर विचार रखे थे. इन्हें आप उपर्युक्त ब्लोगों में पढ़ चुके हैं. अब अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूँ. कृपया गौर फरमाएं-)
मेरी जानकारी में हिन्दुस्तानी अमीर खुसरो के समय उन सिपाहियों के बीच से उभरी है जो मुग़ल सेना में साथ-साथ रहते थे. इनमें कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तथा अधिकांश ईरान, खुरासान, तुर्की और आज के अफगानिस्तान तथा उज़बेकिस्तान के जवान हुआ करते थे. इनकी आपसी बोल-चाल के मिश्रण से जो भाषा उभरी वह उत्तर भारत में पसरती गयी. यही रोजमर्रा के कामकाज में इस्तेमाल होने लगी और आगे चलकर इसी में व्यापार होने लगा, नौकरियाँ मिलने लगीं. आम सैनिक कार्रवाइयों तथा जनता के बीच अहम ऐलानों की भाषा भी यही बनती गयी. इसे ही उर्दू कहा जाता है. तत्कालीन शासकों को भी अरबी-फारसी की दुरूहता के आगे जनता की इस बोली-ठोली को तसलीम करना पड़ा.
उत्तर और पूर्वी भारत के जिस इलाके में जिस बोली का असर था, उसने उर्दू को अपना लहजा, अपना तेवर दिया. जैसे पछांही, अवधी, ब्रज, मगही, बघेली, बुन्देली, बांग्ला, उड़िया, इत्यादि.
वो कहते हैं न कि जिस भाषा में धंधा हो सकता है वही भाषा जिंदा बचती है. यह बात आज भी सच है. इसलिए मैं इसे हिन्दी-उर्दू या हिन्दी-अंग्रेजी के झगड़े से जोड़ कर नहीं देख पाता क्योकि इबारत स्पष्ट है. जो लोग इसे हिन्दू-मुस्लिम की भाषा या भारतीय-विदेशी का संघर्ष बताते हैं, उनका ऐसा करना समझ में आता है.
और अब तो हिन्दी-उर्दू के नाम पर कई सफ़ेद हाथी पल रहे हैं. ये कैसे मूल बात समझने देंगे?
मेरे जानते फारसी या संस्कृत आमजन की भाषा कभी नहीं रही. भारतेंदु हरिश्चन्द्र के ज़माने में जब हिन्दी पद्य से भाषा का गद्य में संक्रमण हुआ तब भाषा कुछ वैसी होती थी जैसी कि आज भी कर्मकांडी पंडित सत्यनारायण की कथा सुनते हुए उपयोग में लाते हैं-- (एक नमूना)-- 'तो सुकदेव जी महराज नारद जी से कहते भये.'
हिन्दी की शुरुआती कहानियों में (रानी केतकी की कहानी) यही हिन्दी आपको मिलेगी. इसे हिन्दी या उर्दू न कहकर खड़ी बोली कहा गया. यानी पद्यात्मक और घुमावदार न होकर जो थोड़े प्रयत्न से सीधे-सीधे बोली और लिखी जा सके. अगर हिन्दी की यात्रा इसी रास्ते चलती तो आज हिन्दी-उर्दू का झगड़ा शुरू न होता, न ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का पचड़ा सामने आता. क्योकि उस भाषा में अद्भुत प्रवाह था और वह भाषा के संक्रमण की स्वाभाविक प्रक्रिया थी.. उसे काशी के पंडित नहीं आगे बढ़ा रहे थे. वह सदल मिश्र, लल्लूलाल और इंशा अल्लाह खान तथा भारतेंदु जैसे जनता के लोगों के हाथ में थी.
लेकिन यहीं से उस हिन्दी -उर्दू का दुर्भाग्य शुरू होता है. इसे संस्कृत के पंडों ने झपट लिया. जैसे तुलसी दास को भाषा (अवधी) में रामचरितमानस लिखने पर काशी और अयोध्या के पंडों ने (मानस का हंस) जाति बाहर करने की कोशिशें की थीं, उसी तरह हिन्दी को विद्वज्जनों की भाषा में ढाल दिया गया. उधर उर्दू वालों ने अरबी-फ़ारसी के शब्द और शब्द बन्ध ठूंसने शुरू किए. नतीजा ये हुआ कि यह जनता के लिए दोनों तरफ से एक दुरूह भाषा बनती गयी. आगे चलकर इसे हिन्दुओं और मुसलमानों की भाषा का जामा पहना दिया गया. दोनों तरफ से सियासत शुरू हुई. अंग्रेजों ने इसे हवा दी और आज आज़ाद भारत में जिस तरह मुस्लिम राजनीति पस्त है उसी तरह उर्दू भी.
लेकिन हिन्दी ने इस भाषिक जकडन से मुक्त होने की कोशिश लगातार की है. परीक्षा में पास-फेल होने का झंझट ख़त्म होने के बाद कई लेखकों और अन्य क्षेत्र के जानकारों ने इसी हिन्दी का दामन थामा है. महात्मा गांधी इसी हिन्दी के हिमायती थे और इसे हिन्दुस्तानी कहते थे. मज़े की बात तो यह है कि जनता नेताओं के भाषण इसी हिन्दुस्तानी में समझती थी.
जैसा कि मैंने ऊपर याद दिलाया है कि भाषा वही ज़िंदा रहती है जिसमें धंधा चलता हो. इसमें यह और जोड़ लीजिये कि लोग उसी भाषा की ओर लपकते हैं जिसमें रोज़गार मिलता हो. आज कितने मुसलमान उर्दू पढ़ना चाहते हैं और कितने हिन्दू हिन्दी?
मैं जिस शहर में रहता हूँ, वहाँ शिवसेना मराठी के अलावा और कुछ चलने नहीं देना चाहती. लेकिन लोकल ट्रेन में उसका वश नहीं चलता. शिवसेना के कट्टर से कट्टर आदमी की बगल में मराठी आदमी भी बैठा हो तो वह हिन्दी में ही बात शुरू करता है. फिर यहाँ की हिन्दी का स्वरूप और उसका विकास देखना भी दिलचस्प है.
उलझन यह है कि लिखते समय आप किस तरह की हिन्दी का उपयोग करें? यह लिखने के स्वरूप पर निर्भर करता है. अगर औपचारिक लेखन है तो उसमें भाषा, शब्द-पद, वाक्य और व्याकरण के ख़ास नियमों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. लेखन अगर अनौपचारिक है तो इन सारे बंधनों से छूट मिलनी चाहिए. ब्लॉग लेखन को लोग फिलहाल अनौपचारिक मान रहे हैं. तब इतनी हाय-तौबा क्यों? जो मर्जी लिखिए, हिंग्लिश में लिखिए, मुम्बईया में लिखिए, महमूद की हैदराबादी हिन्दी में लिखिए, या टिपिकल बिहारी में लिखिए.
जहाँ तक नुक्ते की बात है तो मेरा मत यह है कि या तो सही जगह नुक्ता लगाइये, या इसे भूल ही जाइए. ग़लत जगह नुक्ता लगाने से अर्थ का अनर्थ हो सकता है. अगर हम 'ख़ुदा' को 'खुदा' और 'ज़ेब' को 'जेब' लिखेंगे तो वही फ़जीहत होगी जो 'बदन' और 'वदन' का फ़र्क न कर पाने से होती है. यहाँ बता देने में कोई गुरेज नहीं है- ज़ेब का अर्थ है शोभा और अगर कभी आपकी जेब कटी होगी तो जेब का अर्थ आप जानते ही होंगे. बदन का अर्थ है देह, और वदन का अर्थ मुख.
हिन्दी भाषा की प्रकृति अविरल बहने की ही रही है.चाहे इसे विद्वानों ने कितना भी अपने कब्जे में करना चाहा, यह नदी के उद्दाम वेग की तरह आगे बढ़ती रही है. संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्द इसी में आपको मिलेंगे. अंग्रेजी के कितने ही शब्द हिन्दी कुल में शामिल हो चुके हैं. कुछ शब्द तो ऐसे हैं कि आपको सिर्फ इसी हिन्दी में मिलेंगे. जैसे जुगाड़मेंट. इसी हिन्दी में कई शब्द आपको उर्दू के लग सकते हैं लेकिन वे हैं असल में तुर्की, पुर्तगाली या फ्रांसीसी के.
अरबी, फ़ारसी और अग्रेज़ी से आए शब्दों की फेहरिस्त लम्बी है. इसकी वजह यह है कि इन्होंने भारत पर बड़े अरसे तक शासन किया. यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मुग़ल तुर्क थे इसलिए तुर्की के शब्द भी हिन्दी में बहुत मिलेंगे. कुछ उदाहरण पेश करता हूँ-
अंग्रेज़ी शब्द- साकइल, रेल, टिकट, स्टैंप, पुलिस, निब, स्टोव, टेलीफोन, फोटो, सिनेमा आदि.
फ़ारसी शब्द- औरत, खजांची, खुशामद, जमीन, सरकार, सिफारिश, अंगूर, आबाद, आस्तीन, गुलाब, चपाती, जंजीर, दरी, नमक, नाश्ता, परदा, प्याला आदि.
तुर्की शब्द- तोप, तमगा, दारोगा, बारूद, बंदूक, कुली, बेगम, बहादुर, लाश आदि.
फ्रांसीसी- रेस्तरां, कूपन, अंग्रेज़ी, कारतूस, रिपोर्ताज आदि.
जापानी- रिक्शा
पुर्तगाल- गिरजा, पादरी, काजू, चाबी, बिस्किट, कमीज़, तौलिया आदि.
उत्तर तथा पूर्वी भारत की बोलियों के तो हजारों शब्द हिन्दी में घुले-मिले हुए हैं. इन सबके हिन्दी में आने की एक यात्रा रही है. देवभाषा से पाली, प्राकृत और अपभ्रंस होते हुए.
फिर भी अगर कोई जिद करे कि वह तो पूर्वी हिन्दी लिखेगा. तो उसे किसने रोका है? कोई कहे कि वह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी लिखेगा तो उसे कौन मना करता है? लेकिन उससे जब नफ़ा-नुकसान होगा तो वह ख़ुद राह लग जायेगा.
रही बात ज्ञान-विज्ञान की. तो भाई, पहले हिन्दी में आधुनिक ज्ञान के शास्त्र लिखो, नयी-नयी खोजें करो, तब न अपनी शब्दावालियां बनाओगे? या खाली कूदते रहोगे कि कम्यूटर अंग्रेजी में क्यों पढ़ाया जाता है या जीव विज्ञान के शब्द-पद ऐसी अबूझ हिन्दी में क्यों है? समझना चाहिए कि ये शब्द-पद या तो पर्यायवाची हैं या समानार्थी. अगर आपका शोध नहीं है तो आपकी शब्दावली भी नहीं होगी. तब तो ऐसे ही रट्टा मारना पड़ेगा और हिन्दी का रोना उसी तरह रोना पड़ेगा जिस तरह उर्दू वाले रोते हैं.
फिर भी हिन्दी की यह उदारता है कि स्पुतनिक तथा सॉफ्टवेयर जैसे शब्द लगते ही नहीं कि ये रूसी और अंग्रेज़ी के हैं. है न ये अजस्र और अविरल धारा!
मेरा सुझाव यह है कि फिलहाल आप इसी हिन्दी का इस्तेमाल करें, जिसका बखान मैं ऊपर कर आया हूँ. और हो सके तो इसमें कुछ योगदान करते चलें.
मेरी जानकारी में हिन्दुस्तानी अमीर खुसरो के समय उन सिपाहियों के बीच से उभरी है जो मुग़ल सेना में साथ-साथ रहते थे. इनमें कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तथा अधिकांश ईरान, खुरासान, तुर्की और आज के अफगानिस्तान तथा उज़बेकिस्तान के जवान हुआ करते थे. इनकी आपसी बोल-चाल के मिश्रण से जो भाषा उभरी वह उत्तर भारत में पसरती गयी. यही रोजमर्रा के कामकाज में इस्तेमाल होने लगी और आगे चलकर इसी में व्यापार होने लगा, नौकरियाँ मिलने लगीं. आम सैनिक कार्रवाइयों तथा जनता के बीच अहम ऐलानों की भाषा भी यही बनती गयी. इसे ही उर्दू कहा जाता है. तत्कालीन शासकों को भी अरबी-फारसी की दुरूहता के आगे जनता की इस बोली-ठोली को तसलीम करना पड़ा.
उत्तर और पूर्वी भारत के जिस इलाके में जिस बोली का असर था, उसने उर्दू को अपना लहजा, अपना तेवर दिया. जैसे पछांही, अवधी, ब्रज, मगही, बघेली, बुन्देली, बांग्ला, उड़िया, इत्यादि.
वो कहते हैं न कि जिस भाषा में धंधा हो सकता है वही भाषा जिंदा बचती है. यह बात आज भी सच है. इसलिए मैं इसे हिन्दी-उर्दू या हिन्दी-अंग्रेजी के झगड़े से जोड़ कर नहीं देख पाता क्योकि इबारत स्पष्ट है. जो लोग इसे हिन्दू-मुस्लिम की भाषा या भारतीय-विदेशी का संघर्ष बताते हैं, उनका ऐसा करना समझ में आता है.
और अब तो हिन्दी-उर्दू के नाम पर कई सफ़ेद हाथी पल रहे हैं. ये कैसे मूल बात समझने देंगे?
मेरे जानते फारसी या संस्कृत आमजन की भाषा कभी नहीं रही. भारतेंदु हरिश्चन्द्र के ज़माने में जब हिन्दी पद्य से भाषा का गद्य में संक्रमण हुआ तब भाषा कुछ वैसी होती थी जैसी कि आज भी कर्मकांडी पंडित सत्यनारायण की कथा सुनते हुए उपयोग में लाते हैं-- (एक नमूना)-- 'तो सुकदेव जी महराज नारद जी से कहते भये.'
हिन्दी की शुरुआती कहानियों में (रानी केतकी की कहानी) यही हिन्दी आपको मिलेगी. इसे हिन्दी या उर्दू न कहकर खड़ी बोली कहा गया. यानी पद्यात्मक और घुमावदार न होकर जो थोड़े प्रयत्न से सीधे-सीधे बोली और लिखी जा सके. अगर हिन्दी की यात्रा इसी रास्ते चलती तो आज हिन्दी-उर्दू का झगड़ा शुरू न होता, न ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का पचड़ा सामने आता. क्योकि उस भाषा में अद्भुत प्रवाह था और वह भाषा के संक्रमण की स्वाभाविक प्रक्रिया थी.. उसे काशी के पंडित नहीं आगे बढ़ा रहे थे. वह सदल मिश्र, लल्लूलाल और इंशा अल्लाह खान तथा भारतेंदु जैसे जनता के लोगों के हाथ में थी.
लेकिन यहीं से उस हिन्दी -उर्दू का दुर्भाग्य शुरू होता है. इसे संस्कृत के पंडों ने झपट लिया. जैसे तुलसी दास को भाषा (अवधी) में रामचरितमानस लिखने पर काशी और अयोध्या के पंडों ने (मानस का हंस) जाति बाहर करने की कोशिशें की थीं, उसी तरह हिन्दी को विद्वज्जनों की भाषा में ढाल दिया गया. उधर उर्दू वालों ने अरबी-फ़ारसी के शब्द और शब्द बन्ध ठूंसने शुरू किए. नतीजा ये हुआ कि यह जनता के लिए दोनों तरफ से एक दुरूह भाषा बनती गयी. आगे चलकर इसे हिन्दुओं और मुसलमानों की भाषा का जामा पहना दिया गया. दोनों तरफ से सियासत शुरू हुई. अंग्रेजों ने इसे हवा दी और आज आज़ाद भारत में जिस तरह मुस्लिम राजनीति पस्त है उसी तरह उर्दू भी.
लेकिन हिन्दी ने इस भाषिक जकडन से मुक्त होने की कोशिश लगातार की है. परीक्षा में पास-फेल होने का झंझट ख़त्म होने के बाद कई लेखकों और अन्य क्षेत्र के जानकारों ने इसी हिन्दी का दामन थामा है. महात्मा गांधी इसी हिन्दी के हिमायती थे और इसे हिन्दुस्तानी कहते थे. मज़े की बात तो यह है कि जनता नेताओं के भाषण इसी हिन्दुस्तानी में समझती थी.
जैसा कि मैंने ऊपर याद दिलाया है कि भाषा वही ज़िंदा रहती है जिसमें धंधा चलता हो. इसमें यह और जोड़ लीजिये कि लोग उसी भाषा की ओर लपकते हैं जिसमें रोज़गार मिलता हो. आज कितने मुसलमान उर्दू पढ़ना चाहते हैं और कितने हिन्दू हिन्दी?
मैं जिस शहर में रहता हूँ, वहाँ शिवसेना मराठी के अलावा और कुछ चलने नहीं देना चाहती. लेकिन लोकल ट्रेन में उसका वश नहीं चलता. शिवसेना के कट्टर से कट्टर आदमी की बगल में मराठी आदमी भी बैठा हो तो वह हिन्दी में ही बात शुरू करता है. फिर यहाँ की हिन्दी का स्वरूप और उसका विकास देखना भी दिलचस्प है.
उलझन यह है कि लिखते समय आप किस तरह की हिन्दी का उपयोग करें? यह लिखने के स्वरूप पर निर्भर करता है. अगर औपचारिक लेखन है तो उसमें भाषा, शब्द-पद, वाक्य और व्याकरण के ख़ास नियमों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. लेखन अगर अनौपचारिक है तो इन सारे बंधनों से छूट मिलनी चाहिए. ब्लॉग लेखन को लोग फिलहाल अनौपचारिक मान रहे हैं. तब इतनी हाय-तौबा क्यों? जो मर्जी लिखिए, हिंग्लिश में लिखिए, मुम्बईया में लिखिए, महमूद की हैदराबादी हिन्दी में लिखिए, या टिपिकल बिहारी में लिखिए.
जहाँ तक नुक्ते की बात है तो मेरा मत यह है कि या तो सही जगह नुक्ता लगाइये, या इसे भूल ही जाइए. ग़लत जगह नुक्ता लगाने से अर्थ का अनर्थ हो सकता है. अगर हम 'ख़ुदा' को 'खुदा' और 'ज़ेब' को 'जेब' लिखेंगे तो वही फ़जीहत होगी जो 'बदन' और 'वदन' का फ़र्क न कर पाने से होती है. यहाँ बता देने में कोई गुरेज नहीं है- ज़ेब का अर्थ है शोभा और अगर कभी आपकी जेब कटी होगी तो जेब का अर्थ आप जानते ही होंगे. बदन का अर्थ है देह, और वदन का अर्थ मुख.
हिन्दी भाषा की प्रकृति अविरल बहने की ही रही है.चाहे इसे विद्वानों ने कितना भी अपने कब्जे में करना चाहा, यह नदी के उद्दाम वेग की तरह आगे बढ़ती रही है. संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्द इसी में आपको मिलेंगे. अंग्रेजी के कितने ही शब्द हिन्दी कुल में शामिल हो चुके हैं. कुछ शब्द तो ऐसे हैं कि आपको सिर्फ इसी हिन्दी में मिलेंगे. जैसे जुगाड़मेंट. इसी हिन्दी में कई शब्द आपको उर्दू के लग सकते हैं लेकिन वे हैं असल में तुर्की, पुर्तगाली या फ्रांसीसी के.
अरबी, फ़ारसी और अग्रेज़ी से आए शब्दों की फेहरिस्त लम्बी है. इसकी वजह यह है कि इन्होंने भारत पर बड़े अरसे तक शासन किया. यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मुग़ल तुर्क थे इसलिए तुर्की के शब्द भी हिन्दी में बहुत मिलेंगे. कुछ उदाहरण पेश करता हूँ-
अंग्रेज़ी शब्द- साकइल, रेल, टिकट, स्टैंप, पुलिस, निब, स्टोव, टेलीफोन, फोटो, सिनेमा आदि.
फ़ारसी शब्द- औरत, खजांची, खुशामद, जमीन, सरकार, सिफारिश, अंगूर, आबाद, आस्तीन, गुलाब, चपाती, जंजीर, दरी, नमक, नाश्ता, परदा, प्याला आदि.
तुर्की शब्द- तोप, तमगा, दारोगा, बारूद, बंदूक, कुली, बेगम, बहादुर, लाश आदि.
फ्रांसीसी- रेस्तरां, कूपन, अंग्रेज़ी, कारतूस, रिपोर्ताज आदि.
जापानी- रिक्शा
पुर्तगाल- गिरजा, पादरी, काजू, चाबी, बिस्किट, कमीज़, तौलिया आदि.
उत्तर तथा पूर्वी भारत की बोलियों के तो हजारों शब्द हिन्दी में घुले-मिले हुए हैं. इन सबके हिन्दी में आने की एक यात्रा रही है. देवभाषा से पाली, प्राकृत और अपभ्रंस होते हुए.
फिर भी अगर कोई जिद करे कि वह तो पूर्वी हिन्दी लिखेगा. तो उसे किसने रोका है? कोई कहे कि वह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी लिखेगा तो उसे कौन मना करता है? लेकिन उससे जब नफ़ा-नुकसान होगा तो वह ख़ुद राह लग जायेगा.
रही बात ज्ञान-विज्ञान की. तो भाई, पहले हिन्दी में आधुनिक ज्ञान के शास्त्र लिखो, नयी-नयी खोजें करो, तब न अपनी शब्दावालियां बनाओगे? या खाली कूदते रहोगे कि कम्यूटर अंग्रेजी में क्यों पढ़ाया जाता है या जीव विज्ञान के शब्द-पद ऐसी अबूझ हिन्दी में क्यों है? समझना चाहिए कि ये शब्द-पद या तो पर्यायवाची हैं या समानार्थी. अगर आपका शोध नहीं है तो आपकी शब्दावली भी नहीं होगी. तब तो ऐसे ही रट्टा मारना पड़ेगा और हिन्दी का रोना उसी तरह रोना पड़ेगा जिस तरह उर्दू वाले रोते हैं.
फिर भी हिन्दी की यह उदारता है कि स्पुतनिक तथा सॉफ्टवेयर जैसे शब्द लगते ही नहीं कि ये रूसी और अंग्रेज़ी के हैं. है न ये अजस्र और अविरल धारा!
मेरा सुझाव यह है कि फिलहाल आप इसी हिन्दी का इस्तेमाल करें, जिसका बखान मैं ऊपर कर आया हूँ. और हो सके तो इसमें कुछ योगदान करते चलें.
रविवार, 3 फ़रवरी 2008
ईश्वर पर विश्वास कायम होता है भय से
बुर्जुआ समाज और संस्कृति-११
(अब तक आपने पढ़ा कि विज्ञापन विशेषज्ञ झूठे प्रचार से लोगों को ठगने का कार्य करते हैं। अब आगे...)
सिर्फ कमज़ोर या ईमानदार लोग ही प्रतियोगिता के फलस्वरूप हाशिये पर आए हों ऐसा नहीं। अनेक बाहुबली भी इससे प्रभावित हो रहे हैं, और उनके दिन ज़्यादा नहीं बचे हैं. जिस समाज की रगों में युद्ध का उन्माद खून की तरह दौड़ता हो, उसका स्थायित्व भंगुर ही होता है. दरअसल बुर्जुआ समाज के लिए 'समाज' शब्द ही अनुपयुक्त है. इसमें समाज के कोई लक्षण ही नहीं हैं. स्वेच्छाचारिता को संयत किए बगैर समाज की रचना असम्भव है. यह भी बुर्जुआ समाज के द्वंद्व में, व्यक्ति-स्वाधीनता के छल से स्वेच्छाचारिता की अनुमति समाज के कतिपय लोगों को मिलती है.
लोकतंत्र की आलोचना में यह बात साफ उभर कर आयी है कि बुर्जुआ समाज में स्वाधीनता सिर्फ़ धनिकों के लिए होती है, ग़रीबों को सिर्फ अनशन करने की स्वाधीनता है. दिखावे के लिए अदालत है लेकिन अमीरों को इसके लंबे हाथ भी नहीं छू पाते. स्पैलंगर के अनुसार- "THE LAW IS ONLY FOR THOSE WHO ARE CUNNING OR POWERFUL ENOUGH TO IGNORE IT".
उच्च न्यायालय में आवेदन करते हुए, हजारों दाँव-पेंचों से गुज़रते हुए एक व्यक्ति का पूरा जीवन न्याय की आशा में बीत जाता है. पुलिस और न्यायाधीश को खुश कर, दिन को रात किया जा सकता है. लक्ष्मी कृपा से, बीच सड़क पर, दिन-दहाड़े हत्या कर बेक़सूर ख़लास हो जाते हैं. बाहुबल और अर्थबल की लड़ाई में कोई फ़र्क नहीं है.
किसी विद्वान ने कहा है- "न्यायालय की न्याय-प्रक्रिया के समर्थन में जितने भी तर्क दिए जाएं, लेकिन विजयी होने के लिए, ऊंची फ़ीस देकर प्रसिद्ध वकील और बैरिस्टर, ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। निरपेक्ष न्याय का ढिंढोरा पीटती हुई जो हमारी न्याय-व्यवस्था बनी थी, उसमें पैसों का यह खेल आने वाली पीढ़ी के लिए चकित करने वाला होगा, इसलिए भी कि प्राचीनकाल में प्रयुक्त बाहुबल की पद्धति से यह कहाँ अलग है. अस्त्र-युद्ध की जगह अर्थ-युद्ध को उत्तरण (उद्धार) तो नहीं ही माना जा सकता है." (एल. टी. हवहाउस/ Morals in Evolutin, भारतीय संसकरण, एशिया पब्लिशिंग हाउस, पेज-१२२).
धनी लोग क़ानून को ठेंगा दिखाते हैं, उनकी काली करतूतों पर क़ानून एक सुहावना परदा है। अन्यथा, सुकरात, ईसा से शुरू कर मार्क्स, डिबेलेरो, नेहरू और गांधी जैसे ज्ञानी, गुणी व्यक्तियों को कानूनन सज़ा नहीं भोगनी पड़ती.
धन के अलावा शब्द जाल भी मनुष्य को मोहित करते हैं। एक ऐसा ही शब्द है- 'व्यक्ति-स्वाधीनता'. पूंजीवाद अपने साथ ही इसका ढिंढोरा पीटता आया था; जनता के नहीं, वरन सरमायेदारों के स्वार्थ में. ज़मींदारी की गुलामी से मुक्त और आत्म-विक्रय की स्वाधीनता प्राप्त कामगारों के बगैर पूंजीवाद की शोषण-व्यवस्था को टिकाए रखना असम्भव ही था. इसलिए सरमायेदारों ने अभिजातों (कुलीनों) से युद्ध कर यह स्वाधीनता दिलाई. तत्पश्चात बुद्धिजीवियों का एक दल इस तथाकथित व्यक्ति-स्वाधीनता का ढोल पीटे जा रहा है.
ज़रा-सा ठहरकर सोचने में हर कोई इसकी टोह पा लेगा कि ढोल जनता के नहीं, सरमायेदारों के पक्ष में पीटे जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार के अनुसार स्वाधीनता के प्रति जनता के मन में आकर्षण से ज़्यादा भय है. व्यक्ति अपनी स्वाधीनता सहन नहीं कर पाता है, वरन दूर भागता है. स्वाधीन रूप से रह पाने के लिए जिस शक्ति, साहस, आत्मविश्वास तथा मेधा की ज़रूरत है, वह गिने-चुने लोगों में ही हो सकती है.
निर्भरता आदमी की सहजात वृत्ति है। जन्मपूर्व ही वह माँ के गर्भ के निरापद आश्रय में रहता है. बचपन माँ-बाप और परिजनों के आश्रय में. किशोरावस्था में स्वाधीनता की भावना उछाल मारती भी है तो उसकी भ्रूणहत्या भय से हो जाती है. सामाजिक और प्राकृतिक वातावरण का दबाव, रोग, शोक, मृत्यु एवं दैवी प्रकोप आदि धारणाएं क्रमशः उसकी किशोर मानसिकता में घटाटोप बनाती जाती हैं. जिससे अनिर्वचनीय भय, उद्वेग और अलगाव तथा असाहयता की भावना पैदा होती है, जिससे मुक्ति के लिए वापस माँ के गर्भ का आश्रय भी नहीं रहता तथा परिवार के प्राथमिक संबंधों में टूटन आती है, उसे जोड़ना भी सम्भव नहीं होता.
ऐसी अवस्था में भयभीत किशोर मन कोई निरापद आश्रय चाहता है। इसलिए उसे सबसे पहले ईश्वर पर विश्वास होने लगता है; पूर्वजों से सुनता आ रहा है कि ईश्वर सर्व-सक्तिमान और निरापद है. यह विश्वास गहरे बैठता जाता है. इसी भावना से नेतृत्व के समक्ष आत्मसमर्पण का भाव पैदा होता है. जटिल समस्यायों का समाधान वह नेताओं पर छोड़ निश्चिंत होना चाहता है.
दूसरा विकल्प है सामाजिक संबंधों के विकास द्वारा संगठन की स्थापना। यौवन सहज ही मित्रभाव पैदा करता है. इस तरह एक दूसरे से जुड़ते चले जाने से व्यक्ति-सता की परिपूरक सामाजिक सत्ता का उदय होता है. व्यक्ति अब अकेला नहीं है. किसी संगठन का सदस्य होता है, समाज का अंश है. समाज व्यक्ति को सुरक्षा का आश्वासन देता है. दुखों और तकलीफों को झेलते हुए भी मनुष्य सामाजिक सम्बन्ध बनाए रखता है.
समाज के प्रति यह आकर्षण सिर्फ सभ्यता के विकास और स्वाधीनता की इच्छा से नहीं पैदा होता है, वरन पैदा होता है स्वाधीनता के भय की वजह से। समाज से अलग निस्संग जीवन व्यक्ति के लिए असहनीय होता है.
'पहल' से साभार
(अगली किस्त में ज़ारी)
(अब तक आपने पढ़ा कि विज्ञापन विशेषज्ञ झूठे प्रचार से लोगों को ठगने का कार्य करते हैं। अब आगे...)
सिर्फ कमज़ोर या ईमानदार लोग ही प्रतियोगिता के फलस्वरूप हाशिये पर आए हों ऐसा नहीं। अनेक बाहुबली भी इससे प्रभावित हो रहे हैं, और उनके दिन ज़्यादा नहीं बचे हैं. जिस समाज की रगों में युद्ध का उन्माद खून की तरह दौड़ता हो, उसका स्थायित्व भंगुर ही होता है. दरअसल बुर्जुआ समाज के लिए 'समाज' शब्द ही अनुपयुक्त है. इसमें समाज के कोई लक्षण ही नहीं हैं. स्वेच्छाचारिता को संयत किए बगैर समाज की रचना असम्भव है. यह भी बुर्जुआ समाज के द्वंद्व में, व्यक्ति-स्वाधीनता के छल से स्वेच्छाचारिता की अनुमति समाज के कतिपय लोगों को मिलती है.
लोकतंत्र की आलोचना में यह बात साफ उभर कर आयी है कि बुर्जुआ समाज में स्वाधीनता सिर्फ़ धनिकों के लिए होती है, ग़रीबों को सिर्फ अनशन करने की स्वाधीनता है. दिखावे के लिए अदालत है लेकिन अमीरों को इसके लंबे हाथ भी नहीं छू पाते. स्पैलंगर के अनुसार- "THE LAW IS ONLY FOR THOSE WHO ARE CUNNING OR POWERFUL ENOUGH TO IGNORE IT".
उच्च न्यायालय में आवेदन करते हुए, हजारों दाँव-पेंचों से गुज़रते हुए एक व्यक्ति का पूरा जीवन न्याय की आशा में बीत जाता है. पुलिस और न्यायाधीश को खुश कर, दिन को रात किया जा सकता है. लक्ष्मी कृपा से, बीच सड़क पर, दिन-दहाड़े हत्या कर बेक़सूर ख़लास हो जाते हैं. बाहुबल और अर्थबल की लड़ाई में कोई फ़र्क नहीं है.
किसी विद्वान ने कहा है- "न्यायालय की न्याय-प्रक्रिया के समर्थन में जितने भी तर्क दिए जाएं, लेकिन विजयी होने के लिए, ऊंची फ़ीस देकर प्रसिद्ध वकील और बैरिस्टर, ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। निरपेक्ष न्याय का ढिंढोरा पीटती हुई जो हमारी न्याय-व्यवस्था बनी थी, उसमें पैसों का यह खेल आने वाली पीढ़ी के लिए चकित करने वाला होगा, इसलिए भी कि प्राचीनकाल में प्रयुक्त बाहुबल की पद्धति से यह कहाँ अलग है. अस्त्र-युद्ध की जगह अर्थ-युद्ध को उत्तरण (उद्धार) तो नहीं ही माना जा सकता है." (एल. टी. हवहाउस/ Morals in Evolutin, भारतीय संसकरण, एशिया पब्लिशिंग हाउस, पेज-१२२).
धनी लोग क़ानून को ठेंगा दिखाते हैं, उनकी काली करतूतों पर क़ानून एक सुहावना परदा है। अन्यथा, सुकरात, ईसा से शुरू कर मार्क्स, डिबेलेरो, नेहरू और गांधी जैसे ज्ञानी, गुणी व्यक्तियों को कानूनन सज़ा नहीं भोगनी पड़ती.
धन के अलावा शब्द जाल भी मनुष्य को मोहित करते हैं। एक ऐसा ही शब्द है- 'व्यक्ति-स्वाधीनता'. पूंजीवाद अपने साथ ही इसका ढिंढोरा पीटता आया था; जनता के नहीं, वरन सरमायेदारों के स्वार्थ में. ज़मींदारी की गुलामी से मुक्त और आत्म-विक्रय की स्वाधीनता प्राप्त कामगारों के बगैर पूंजीवाद की शोषण-व्यवस्था को टिकाए रखना असम्भव ही था. इसलिए सरमायेदारों ने अभिजातों (कुलीनों) से युद्ध कर यह स्वाधीनता दिलाई. तत्पश्चात बुद्धिजीवियों का एक दल इस तथाकथित व्यक्ति-स्वाधीनता का ढोल पीटे जा रहा है.
ज़रा-सा ठहरकर सोचने में हर कोई इसकी टोह पा लेगा कि ढोल जनता के नहीं, सरमायेदारों के पक्ष में पीटे जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार के अनुसार स्वाधीनता के प्रति जनता के मन में आकर्षण से ज़्यादा भय है. व्यक्ति अपनी स्वाधीनता सहन नहीं कर पाता है, वरन दूर भागता है. स्वाधीन रूप से रह पाने के लिए जिस शक्ति, साहस, आत्मविश्वास तथा मेधा की ज़रूरत है, वह गिने-चुने लोगों में ही हो सकती है.
निर्भरता आदमी की सहजात वृत्ति है। जन्मपूर्व ही वह माँ के गर्भ के निरापद आश्रय में रहता है. बचपन माँ-बाप और परिजनों के आश्रय में. किशोरावस्था में स्वाधीनता की भावना उछाल मारती भी है तो उसकी भ्रूणहत्या भय से हो जाती है. सामाजिक और प्राकृतिक वातावरण का दबाव, रोग, शोक, मृत्यु एवं दैवी प्रकोप आदि धारणाएं क्रमशः उसकी किशोर मानसिकता में घटाटोप बनाती जाती हैं. जिससे अनिर्वचनीय भय, उद्वेग और अलगाव तथा असाहयता की भावना पैदा होती है, जिससे मुक्ति के लिए वापस माँ के गर्भ का आश्रय भी नहीं रहता तथा परिवार के प्राथमिक संबंधों में टूटन आती है, उसे जोड़ना भी सम्भव नहीं होता.
ऐसी अवस्था में भयभीत किशोर मन कोई निरापद आश्रय चाहता है। इसलिए उसे सबसे पहले ईश्वर पर विश्वास होने लगता है; पूर्वजों से सुनता आ रहा है कि ईश्वर सर्व-सक्तिमान और निरापद है. यह विश्वास गहरे बैठता जाता है. इसी भावना से नेतृत्व के समक्ष आत्मसमर्पण का भाव पैदा होता है. जटिल समस्यायों का समाधान वह नेताओं पर छोड़ निश्चिंत होना चाहता है.
दूसरा विकल्प है सामाजिक संबंधों के विकास द्वारा संगठन की स्थापना। यौवन सहज ही मित्रभाव पैदा करता है. इस तरह एक दूसरे से जुड़ते चले जाने से व्यक्ति-सता की परिपूरक सामाजिक सत्ता का उदय होता है. व्यक्ति अब अकेला नहीं है. किसी संगठन का सदस्य होता है, समाज का अंश है. समाज व्यक्ति को सुरक्षा का आश्वासन देता है. दुखों और तकलीफों को झेलते हुए भी मनुष्य सामाजिक सम्बन्ध बनाए रखता है.
समाज के प्रति यह आकर्षण सिर्फ सभ्यता के विकास और स्वाधीनता की इच्छा से नहीं पैदा होता है, वरन पैदा होता है स्वाधीनता के भय की वजह से। समाज से अलग निस्संग जीवन व्यक्ति के लिए असहनीय होता है.
'पहल' से साभार
(अगली किस्त में ज़ारी)
शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
झूठे प्रचार से लोगों को ठगने की कला
बुर्जुआ समाज और संस्कृति- १०
(अब तक आपने पढ़ा कि सारा बुर्जुआ समाज ही जैसे कोई 'दग्ध थियेटर' है. प्रतियोगिता की सीमित सार्थकता हो सकती है, लेकिन इसे प्रोत्साहित करना ख़तरनाक होता है. अब आगे...)
प्राचीन मनीषियों का कहना है कि आकांक्षाएं असीम हैं और कभी भी पूरी नहीं हो सकतीं. भोग-विलास की आकांक्षा प्रश्रय पाकर और बढ़ती है. आज अगर इस विचार को मान लिया जाए तो कारखानों से जो उत्पादनों की बाढ़ आ रही है, और जिससे करोड़ों लोगों की जीविका चलती है- सबका क्या होगा. जनता अगर सादा जीवन व्यतीत करे, विलासिता के साधन जीवन से लुप्त हो जाएं, तो सारी आवश्यक वस्तुओं के उद्योगों पर ताले लग जायेंगे, श्रमिक छंटाई होगी, राष्ट्रीय आय का स्तर नीचे आ जायेगा और मालिकों के मुनाफ़े में गज़ब का ह्रास आयेगा.
इसलिए, येन-केन-प्रकारेण माल की मांग बनाए रखनी होगी, जनता को इसके उत्पादन के लिए उत्साहित करना होगा, नए फैशन खोजने होंगे, नए माडल और अश्लील विज्ञापनों द्वारा जनता के मन में ऐसा प्रलोभन जगाना होगा कि वह क़र्ज़ लेकर, चोरी करके या बेईमानी से अपनी आकांक्षा की पूर्ति करे. ऐसे बुद्धिजीवीगण, जो उत्पादन की बढोत्तरी के लिए पुख्ता दलीलें देते हैं, उनके ऐसे ही विचार हैं. भोग की आकांक्षा मनुष्य के अधोपतन का कारण है- यह विचार उनके लिए असंभव है क्योंकि वे विशेषज्ञ हैं. हिरन की तरह सर ऊंचा किए वे एक ही दिशा का संगीत सुन पाते हैं.
विशेषज्ञ झूठे प्रचार से लोगों को ठगने का काम करते हैं. ज्यादातर आयकर वकील कम से कम आयकर देकर बड़ी कंपनियों को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा जुगाड़ कराने की योग्यता रखते हैं. जनसम्पर्क अधिकारी का काम सरकार के कुकृत्य की सफाई देना है. श्रमिक अधिकारी का काम श्रमिक विवाद में मालिकों का पक्ष लेना है. कूटनीतिज्ञों का काम स्वदेश के स्वार्थ में विदेश जाकर झूठ बोलना है. पुलिस का काम है घूस लेकर अपराधियों को छोड़ना. सैनिकों का काम है नरहत्या. राजनीतिज्ञों का काम है जनता पर अत्याचार कर सरमायेदारों को मजबूत करना, अखबारों का काम है झूठी खबरें छापकर जनता को बरगलाना और युद्ध के दिनों में उन्माद का वातावरण बनाना. (यहाँ मैं जोड़ना चाहूंगा कि दंगों के समय भी- विजयशंकर).
इन सभी की प्राथमिक शिक्षाएं हमारे विश्वविद्यालयों में मिलती हैं. लेकिन यही काम शोषित जनता करती है तो चारों तरफ शोर होने लगता है. दोनों के कामों में बुनियादी अन्तर न होते हुए भी बुर्जुआ बुद्धिजीवीगण बुर्जुआ वर्ग के सारे कुकृत्यों को सत्कर्म मानकर सफाई देते रहते हैं. एक ही-सा कृत्य अगर पूंजीवाद-विरोधी होता है तो समाज-विरोधी भी कहलाने लगता है.
बगैर युद्ध के उन्माद के कोई भी कार्य बुर्जुआ-सम्मत नहीं है. वर्त्तमान राजनीति ही युद्ध की राजनीति है. सरकार बनाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दल युद्ध करते हैं. छल-बल-कौशल से निर्वाचन का युद्ध जीतकर कुर्सी हासिल करते हैं. यह एक खुला रहस्य है कि निर्वाचन में विराट खर्च का जुगाड़ कैसे होता है. जीतने के लिए दुर्नीति, मिथ्या प्रचार तथा कैसे-कैसे कीचड़ उछाले जाते हैं. लेकिन बुर्जुआ व्यवस्था में सरकार बनाने की इससे बेहतर प्रक्रिया हो ही नहीं सकती है.
कामगार और सरमायेदारों में भी युद्ध होता है. कामगार अपनी मांग के लिए नोटिस देंगे, हड़ताल करेंगे, पिकेटिंग (धरना) करेंगे, मालिक ले-ऑफ़ की घोषणा करेंगे, पुलिस की गोलियों से कुछ कामगार और आम लोग मारे जायेंगे, यातायात और विद्युत के ठप पड़ जाने से जनता भुगतेगी. फ़िर त्रिपक्षीय बैठक होगी, मोलभाव होगा और कमज़ोर पक्ष पराजित होगा.
कामगार अगर कुछ मांगें मनवा भी लें तो सरमायेदारों की तरफ से मुद्रास्फीति का तीर छोड़ा जायेगा. फ़िर से वही हड़ताल, लाक ऑउट और बैठक. ऋतुचक्र की तरह यह क्रम चलता रहेगा.
(यह लेख १९८१ में लिखा गया था इसलिए पाठक कृपया समय का यह अन्तर पाट कर चलें- विजय.)
'पहल' से साभार
(अगली किस्त में जारी...)
(अब तक आपने पढ़ा कि सारा बुर्जुआ समाज ही जैसे कोई 'दग्ध थियेटर' है. प्रतियोगिता की सीमित सार्थकता हो सकती है, लेकिन इसे प्रोत्साहित करना ख़तरनाक होता है. अब आगे...)
प्राचीन मनीषियों का कहना है कि आकांक्षाएं असीम हैं और कभी भी पूरी नहीं हो सकतीं. भोग-विलास की आकांक्षा प्रश्रय पाकर और बढ़ती है. आज अगर इस विचार को मान लिया जाए तो कारखानों से जो उत्पादनों की बाढ़ आ रही है, और जिससे करोड़ों लोगों की जीविका चलती है- सबका क्या होगा. जनता अगर सादा जीवन व्यतीत करे, विलासिता के साधन जीवन से लुप्त हो जाएं, तो सारी आवश्यक वस्तुओं के उद्योगों पर ताले लग जायेंगे, श्रमिक छंटाई होगी, राष्ट्रीय आय का स्तर नीचे आ जायेगा और मालिकों के मुनाफ़े में गज़ब का ह्रास आयेगा.
इसलिए, येन-केन-प्रकारेण माल की मांग बनाए रखनी होगी, जनता को इसके उत्पादन के लिए उत्साहित करना होगा, नए फैशन खोजने होंगे, नए माडल और अश्लील विज्ञापनों द्वारा जनता के मन में ऐसा प्रलोभन जगाना होगा कि वह क़र्ज़ लेकर, चोरी करके या बेईमानी से अपनी आकांक्षा की पूर्ति करे. ऐसे बुद्धिजीवीगण, जो उत्पादन की बढोत्तरी के लिए पुख्ता दलीलें देते हैं, उनके ऐसे ही विचार हैं. भोग की आकांक्षा मनुष्य के अधोपतन का कारण है- यह विचार उनके लिए असंभव है क्योंकि वे विशेषज्ञ हैं. हिरन की तरह सर ऊंचा किए वे एक ही दिशा का संगीत सुन पाते हैं.
विशेषज्ञ झूठे प्रचार से लोगों को ठगने का काम करते हैं. ज्यादातर आयकर वकील कम से कम आयकर देकर बड़ी कंपनियों को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा जुगाड़ कराने की योग्यता रखते हैं. जनसम्पर्क अधिकारी का काम सरकार के कुकृत्य की सफाई देना है. श्रमिक अधिकारी का काम श्रमिक विवाद में मालिकों का पक्ष लेना है. कूटनीतिज्ञों का काम स्वदेश के स्वार्थ में विदेश जाकर झूठ बोलना है. पुलिस का काम है घूस लेकर अपराधियों को छोड़ना. सैनिकों का काम है नरहत्या. राजनीतिज्ञों का काम है जनता पर अत्याचार कर सरमायेदारों को मजबूत करना, अखबारों का काम है झूठी खबरें छापकर जनता को बरगलाना और युद्ध के दिनों में उन्माद का वातावरण बनाना. (यहाँ मैं जोड़ना चाहूंगा कि दंगों के समय भी- विजयशंकर).
इन सभी की प्राथमिक शिक्षाएं हमारे विश्वविद्यालयों में मिलती हैं. लेकिन यही काम शोषित जनता करती है तो चारों तरफ शोर होने लगता है. दोनों के कामों में बुनियादी अन्तर न होते हुए भी बुर्जुआ बुद्धिजीवीगण बुर्जुआ वर्ग के सारे कुकृत्यों को सत्कर्म मानकर सफाई देते रहते हैं. एक ही-सा कृत्य अगर पूंजीवाद-विरोधी होता है तो समाज-विरोधी भी कहलाने लगता है.
बगैर युद्ध के उन्माद के कोई भी कार्य बुर्जुआ-सम्मत नहीं है. वर्त्तमान राजनीति ही युद्ध की राजनीति है. सरकार बनाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दल युद्ध करते हैं. छल-बल-कौशल से निर्वाचन का युद्ध जीतकर कुर्सी हासिल करते हैं. यह एक खुला रहस्य है कि निर्वाचन में विराट खर्च का जुगाड़ कैसे होता है. जीतने के लिए दुर्नीति, मिथ्या प्रचार तथा कैसे-कैसे कीचड़ उछाले जाते हैं. लेकिन बुर्जुआ व्यवस्था में सरकार बनाने की इससे बेहतर प्रक्रिया हो ही नहीं सकती है.
कामगार और सरमायेदारों में भी युद्ध होता है. कामगार अपनी मांग के लिए नोटिस देंगे, हड़ताल करेंगे, पिकेटिंग (धरना) करेंगे, मालिक ले-ऑफ़ की घोषणा करेंगे, पुलिस की गोलियों से कुछ कामगार और आम लोग मारे जायेंगे, यातायात और विद्युत के ठप पड़ जाने से जनता भुगतेगी. फ़िर त्रिपक्षीय बैठक होगी, मोलभाव होगा और कमज़ोर पक्ष पराजित होगा.
कामगार अगर कुछ मांगें मनवा भी लें तो सरमायेदारों की तरफ से मुद्रास्फीति का तीर छोड़ा जायेगा. फ़िर से वही हड़ताल, लाक ऑउट और बैठक. ऋतुचक्र की तरह यह क्रम चलता रहेगा.
(यह लेख १९८१ में लिखा गया था इसलिए पाठक कृपया समय का यह अन्तर पाट कर चलें- विजय.)
'पहल' से साभार
(अगली किस्त में जारी...)
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
मेरी नई ग़ज़ल
प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...
-
आप सबने मोहम्मद रफ़ी के गाने 'बाबुल की दुवायें लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले' की पैरोडी सुनी होगी, जो इस तरह है- 'डाबर की दवा...
-
साथियो, इस बार कई दिन गाँव में डटा रहा. ठंड का लुत्फ़ उठाया. 'होरा' चाबा गया. भुने हुए आलू और भांटा (बैंगन) का भरता खाया गया. लहसन ...
-
इस बार जबलपुर जाने का ख़ुमार अलग रहा. अबकी होली के रंगों में कुछ वायवीय, कुछ शरीरी और कुछ अलौकिक अनुभूतियाँ घुली हुई थीं. संकोच के साथ सूचना ...