'मौर्यध्वज और ताम्रध्वज' नाटक हमारे यहाँ रामलीला का राज्याभिषेक समाप्त होने के बाद देसी मंडलियाँ खेला करती थीं. अब तो टीवी ने रामलीला मंडलियों को लील लिया है. बचपन में सतना जिले के दुरेहा कस्बे की रामलीला मंडली बड़ी नामाजादिक थी. उसका साजो-सामान और कलाकार ख्यातनाम थे. बीस बैलगाड़ियों में उसका सामान पहुंचता था. परशुराम का अभिनय करने वाले कलाकार रामरतन शुक्लाजी की प्रतिष्ठा इस बात में थी कि वह लक्ष्मण से वार्तालाप करते-करते तख्त तोड़ दिया करते थे - 'भा कुठार कुंठित कुलघाती...
'देखो बेटा, किसी को फालतू में गरब नहीं करना चाहिए. जिस प्रकार बकरी मैं-मैं करती है उसी तरह आदमी घमंड में जिंदगी भर मैं-मैं करता है, और बकरी के मरने के बाद जब उसकी खाल से रुई धुनने का तकुआ बनाया जाता है तब धुनिया के रुई धुनते समय उसकी खाल से तुही-तुही आवाज आती है, यानी तब बकरी मैं-मैं नहीं करती बल्कि तूही-तूही कहने लग जाती है. इसी प्रकार मरने के बाद आदमी को अपने घमंड का फल नरक में भोगना पड़ जाता है. अगर आदमी जिंदा रहते मैं-मैं छोड़कर भगवान को माने और कहे कि हे भगवान सारे काम तूही करता है तो उसे स्वर्ग मिलेगा.'
उनकी कद-काठी और मूछें ओरिजिनल थीं. उन्हें सामान्य रूप में देख कर भी हम डर जाया करते थे. लेकिन हमारे बाबा के साथ जब वह अपनी खेती-बाड़ी और घर के सुख-दुःख बयान करते समय बच्चों की तरह निर्मलता से हंसते तो हमारा डर जाता रहता था. पंडित जी रामलीला की घटती लोकप्रियता पर भी चार आंसू बहाना नहीं भूलते थे. उन्हें इस बात से भी तकलीफ होती थी कि जमींदार लोग आमोद-प्रमोद में धन लुटाते हैं लेकिन रामलीला के लिए चन्दा देने के नाम पर इनकी नानी मरती है. मंडली के गाँव में मौजूद रहने तक प्रेमचंद की 'रामलीला' के बालक की तरह हमारी दशा रहती थी. लीजिए, विषयांतर हो ही गया.
तो यही पंडितजी 'मौर्यध्वज और ताम्रध्वज' नाटक के दिन राजा मौर्यध्वज बना करते थे. पांडवों के दिग्विजयी घोड़े पर कब्जा होने से क्रोधित अर्जुन कहते-
'रे सठ बालक कालवश वृथा होय क्यों आज?
विश्वविदित पाण्डवों का पकड़ लियो तैं बाज़!'
मौर्यध्वज पुत्र ताम्रध्वज अर्जुन की अहंकार भरी बातों के जवाब में संवाद गाकर पढ़ते-
'बकरी जो मैं-मैं करती है, वह गले छुरी चलवाती है
जब धुनिया रुई को धुनता है, तब तूही-तूही चिल्लाती है.'
इस पूरे प्रसंग के दौरान पंडितजी परदे के पीछे से ताम्रध्वज को प्रोम्प्टिंग करते रहते थे क्योंकि ताम्रध्वज का किरदार उनका भतीजा निभाता था और मंडली में उसके कई प्रतिद्वंद्वी तैयार हो गए थे.
नाटक के अगले दिन हम लोग उनसे ऊपर की लाइनों का मतलब पूछते तो वह बताते- (कृपया ऊपर का बॉक्स मैटर देखें)
उनकी यह व्याख्या सुनकर हम लोग उनके बताये अनुसार पाप शांत करने के लिए अपनी कोपियों में एक दिन में २०० बार राम-राम लिखने का संकल्प लिया करते और कुछ दिन अमल भी करते थे.
आज सोचता हूँ तो लगता है कि लोकजीवन में चीजों की समझ कितनी मौलिक और गहरे तक पैठी हुई है. यह बात दीगर है कि अब मैं न तो स्वर्ग-नरक के चक्कर में पड़ता न ही कर्मफल के. हालांकि यहाँ तक पहुँचने में मुझे व्यक्तिगत स्तर पर भारी मानसिक और व्यावहारिक श्रम करना पड़ा है. लेकिन रामरतन शुक्लाजी की एक बड़े काम की बात अब भी याद रखता हू- 'बकरी जो मैं-मैं करती है....'
शुक्ल जी बात हम भी याद रखेंगे.
जवाब देंहटाएंबढि़या संस्मरण.
जवाब देंहटाएंसाथ ही बधाई! आप के यहां आते ही अब आज़ाद लबों की आवाज़ भी सुनाई देने लगी.
अरे वाह पण्डितजी, आपका ब्लॉग तो हाईटेक है। बोलने को उत्प्रेरित करने का पॉडकास्ट चालू कर देता है।
जवाब देंहटाएंऔर रामलीला/नाटक के क्या ठाठ हुआ करते थे। वह सब याद कराने को धन्यवाद!
बहुत अच्छा लगा नज़्म सुनते हुए. बधाई.
जवाब देंहटाएंअच्छा वाकया सुनाया आपने ..
जवाब देंहटाएंपँडितजी की सीख याद रखनेवाली है
- लावण्या
अच्छा लगा बधाई.
जवाब देंहटाएंap sabakaa dhanyavaad!
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