निदा फाज़ली उन बड़े शायरों में से हैं जिनके अश'आर लोगों की ज़ुबां पर रच-बस जाते हैं. यही बात आज के अधिकांश शायरों या हिन्दी कवियों के बारे में दावे से नहीं कही जा सकती. अपनी इस बात के समर्थन में मैं उनके कुछ शेर रखूंगा-
अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाए,
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए.
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.
या
नक्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिये,
इस शहर में तो सबसे मुलाक़ात हो गयी.
ऐसे कई शेर हैं जिनका हवाला दे सकता हूँ लेकिन बात उनकी चंद नई और नायाब ग़ज़लों की है.
एक दौर था जब उस्तादों के यहाँ, मुशायरों या नशिस्तों में तरही गज़लें लिख-लिख कर शायर प्रशिक्षित हुआ करते थे. मसलन, बशीर बद्र साहब का वह मशहूर शेर- 'उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए' ; ऐसी ही एक नशिस्त के दरम्यान मिनटों में हो गया था.
निदा साहब के मामले में उलटा हो रहा है. अब वह ख़ुद एक उस्ताद शायर हैं लेकिन पिछले दिनों कई गज़लें उन्होंने दूसरों की ज़मीन पर कही हैं. यह बात और है कि ये सभी शायर उस्तादों के उस्ताद रहे हैं. निदा साहब ने जिन महान शायरों का इंतखाब किया है उनमें अमीर खुसरो, कबीर, कुली कुतुब शाह, नज़ीर अकबराबादी, मीर तकी मीर, मिर्जा ग़ालिब... सूची लम्बी है. चलिए बिना वक्त बरबाद किए निदा साहब की तीन ऐसी ही ग़ज़लें पढ़ी जाएँ:-
सबसे पहले अमीर खुसरो. खुसरो की एक ग़ज़ल का मत्तला है-
जो यार देखा नैन भर मन की गयी चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाय कर.
अब इसी ज़मीन पर निदा साहब की ग़ज़ल-
मन्दिर भी था उसका पता, मस्जिद भी थी उसकी ख़बर
भटके इधर, अटके उधर, खोला नहीं अपना ही घर.
मेला लगा था हर जगह बनता रहा वो मसअला
कुछ ने कहा वो है इधर, कुछ ने कहा वो है उधर.
वो रूप था या रंग था हर पल जो मेरे संग था
मैंने कहा तू कौन है....उसने कहा तेरी नज़र.
कल रात कुछ ऐसा हुआ अब क्या कहें कैसा हुआ
मेरा बदन बिस्तर पे था, मैं चल रहा था चाँद पर.
अब कबीर दास. उनकी पंक्तियाँ हैं-
हमन हैं इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या
रहे आज़ाद या जग में हमन दुनिया से यारी क्या.
और अब कबीर की ज़मीन पर निदा साहब की ये ग़ज़ल-
ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.
ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.
उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.
हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या.
...और आख़िर में पेश कर रहा हूँ नज़ीर अकबराबादी की ज़मीन पर निदा साहब की ये ग़ज़ल. नज़ीर का शेर है-
इस्लाम छोड़ कुफ़्र किया फिर किसी को क्या
जीवन था मेरा मैंने जिया फिर किसी को क्या.
और अब निदा साहब की ये ग़ज़ल नज़ीर की ज़मीन पर देखें-
जो भी किया, किया न किया, फिर किसी को क्या
ग़ालिब उधार लेके जिया फिर किसी को क्या.
उसके कई ठिकाने थे लेकिन जहाँ था मैं
उसको वहीं तलाश किया फिर किसी को क्या.
होगा वो देवता मेरे घर में तो साँप था
ख़तरा लगा तो मार दिया फिर किसी को क्या.
अल्ला अरब में, फ़ारसी वालों में वो ख़ुदा
मैंने जो माँ का नाम लिया फिर किसी को क्या.
दरिया के पार कुछ नहीं लिक्खा हुआ तो था
दरिया को फिर भी पार किया फिर किसी को क्या.
निदा साहब का ग़ज़लों की इस श्रृंखला पर कहना है-
'एनडीए की सरकार के दौरान इतिहास के कपबोर्ड से राजे-महाराजे निकाले गए, उन्हें राजनीतिक खिलौना बनाया गया. ऐसे में मैंने उन मूल्यों की तलाश की जो मूल्य राजनीति ने नष्ट करने की कोशिश की थी.
भारतीय संस्कृति ५००० साल से अधिक पुरानी है. इसमें जो मानव-मानव का रिश्ता, मानव-ईश्वर का रिश्ता बना उसे बीच के एजेंटों ने ख़राब किया है. इसे कलमबद्ध करने की कोशिश मैंने इन ग़ज़लों में की है और सियासत को मोहब्बत सिखाने का प्रयास किया है. खुसरो से लेकर कबीर, नज़ीर, मीर आदि के छंदों के जरिये आधुनिक युगबोध द्वारा उन मूल्यों को पकड़ने की कोशिश की है जो आदमी को आदमी से जोड़ते हैं, मिलाते हैं.
वैसे भी कविता-शायरी में आम आदमी और निम्न मध्य वर्ग की बात तो सभी करते हैं लेकिन ज़ुबाँ मध्यवर्ग या उच्च मध्य वर्ग की होती है. आम आदमी की ज़बान में खुसरो, कबीर, नज़ीर, मीर ने बात की है, आगे नागार्जुन, धूमिल, दुष्यंत कुमार ने बात की है, लेकिन अज्ञेय, मुक्तिबोध की भाषा आम आदमी की भाषा नहीं है. वह बात करने की कोशिश मैंने की है.'
विजयशंकर भाई, ग़ज़ब की पोस्ट. ज़बरदस्त. बहुत बहुत शुक्रिया इस पोस्ट का.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे. इसमें कईं शेर ऐसे हैं जो मैं ढूंढ रहा था. जैसे
जवाब देंहटाएंकिसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.
हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या.
ज़बरदस्त पोस्ट.इस पोस्ट का शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंNida ji ka naam koi naya nahi hai
जवाब देंहटाएंmagar inke bare main jitna padha jaaye kam hi lagta hai
aapne aise kuch sher shamil kiye hain
jo ab tak anjaan the
agar aapke pass kuch achhe sher ho to zarur share kare
is tarah ki post bahut labhkarak hoti hai
thnx once again
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जवाब देंहटाएंश्रृद्धा जी, आपकी मोहब्बत का शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंनिदा साहब मेरे बुजुर्ग हैं और दोस्त भी. उनके जैसा इंसान होना, यारबाज़ (यारबाश) होना ...और मिलना कठिन है. ये पूरी मुंबई जानती और मानती है. कई बार लोगों ने उनकी इस सदाशयता का अनधिकार लाभ भी उठाया है.
आपको निदा साहब का कौन-सा शेर चाहिए आप मुझे ई-मेल पर आदेश करें. ब्लॉग पर 'निदा समग्र' दिखा पाना सम्भव नहीं है. मेरे पास निदा साहब का लगभग हर शेर मौजूद है, या संभवतः याद है. और नहीं याद है दो तस्दीक़ करने के लिए मैं २४/७ निदा साहब से पूछ सकता हूँ.
बहुत बहुत उम्दा पोस्ट. निदा फाज़ली साहब को जिस अंदाज में आपने पेश किया है, छा गये आप. बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंनिदा फाज़ली सरल और बढ़िया लिखते हैं। हम तक की समझ में आता है। यही खासियत है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट है विजय भाई. निदा फ़ाज़ली साहब की शायरी को एक नई निगाह से देखने-दिखाने का धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंkyaa baat hai! nidaa saahab daa javaab naheen!
जवाब देंहटाएंबेहद शानदार पोस्ट की है आपने निदा साहब की .. शुक्रिया
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