सरकारी नीतियों, धर्मांध समूहों, जाति की राजनीति करने वाले दलों का महिमामंडन करने, जनता से सच छिपाने, महानगरों और वहाँ की ही खबरों तथा जनजीवन को पूरा भारत समझ लेने जैसे कई मामलों में भारतीय मीडिया भी अमेरिकी मीडिया के नक्श-ए-कदम पर चल रहा है या कहें कि पश्चिम की भोंडी नक़ल करने की कोशिश कर रहा है. मीडिया में अमेरिकी तकनीक का पिछलग्गू बने रहना तो खैर उसकी मजबूरी ही है.
मैंने लिखा था-
दिलीप भाई, सर्वे वहाँ कराया जाता है जहाँ इसकी आवश्यकता होती है. हमारा मीडिया अंतर्यामी है और तय करता है कि जनता को क्या पढ़ना-देखना-सुनना चाहिए. हमारे यहाँ मीडिया का बाज़ार और न्यूज रूम की सुर-ताल का एक नमूना एक हिन्दी राष्ट्रीय चैनल पर मैंने चंद दिन पहले ही देखा. ऐसे उदाहरण लगभग हर चैनल से दिए जा सकते हैं. पतित होने की स्पर्द्धा चल रही है-
'एक महिला को साईं बाबा साक्षात दर्शन देने के बाद माला थमा कर चले गए, उसके बाद इसे ख़बर की तरह पेश करके उस तथ्य से जोड़ दिया गया कि साईं बाबा ने देह त्यागने से पहले अपने ९ सिक्के सेवा करने वाली लक्ष्मी अम्मा को दे दिए थे. उस महिला की पोती ने यह भी बताया कि वह वर्ष १९१८ का कोई दिन था.'
दर्शन देने वाली इस गल्प को कई ब्रेक लेकर बताया गया और हर ब्रेक में भरपूर विज्ञापन भी थे. सोचिये इन विज्ञापनों के जुटने से पहले साईं बाबा को टीवी पर ख़बर बन कर आने के लिए समाधि में कितनी करवटें बदलना पड़ीं होंगी!
वैसे, यह ख़बर देखने के बाद साईं बाबा मेरे सपने में भी आये थे और इस तरह 'यूज कर लिए जाने' की अपनी असहायता पर फूट-फूट कर रो रहे थे! (भक्तजनों से क्षमायाचना सहित!)
... अब अमेरिकी मीडिया इंडस्ट्री के इस सर्वे की बात (कृपया दिलीप मंडल की उसी पोस्ट में तालिका देखें). वह समाज या पाठकों के हितों वाला सर्वे नहीं है, बल्कि अपनी जान बचाए रखने का सर्कुलेशन सर्वे है. वहाँ पारंपरिक मीडिया की हालत पर्याप्त पतली हो चली है. भारत में भी कई संस्थाएं मेहनताना वसूल कर अखबारों-पत्रिकाओं के लिए इस तरह के सर्वे करती रहती हैं कि किस आयु वर्ग के लोग किस तरह की सामग्री पढ़ना पसंद करते हैं, वगैरह.
नॉम चोम्स्की ने सच ही कहा था कि अमेरिकी समाज दरअसल, एक बन्द समाज है. इसमें मैं यह और जोड़ना चाहूंगा कि अमेरिकी मीडिया की भूमिका इसमें बहुत ज़्यादा है. पड़ताल की जाए तो अमेरिकी मीडिया दुनिया भर के मीडिया, ख़ास कर भारतीय मीडिया से कई गुना ज़्यादा कुत्सित है.
अमेरिका कितना ही लोकतंत्र का दम भरे, वह अपने नागरिकों को किसी भी वैध माध्यम से दुनिया की सही तस्वीर नहीं पहुँचने देता. ख़ास तौर पर तब; जब उसके अत्याचारों की पोल अपनी ही जनता के सामने खुल रही हो. वहाँ का पूरा मीडिया इस खेल में शामिल होता है. ताज़ा उदाहरण इराक़ युद्ध का है. अमेरिकियों को इराक़ हमले के शुरुआती दो साल तक यह पता ही नहीं लगने दिया गया कि अमेरिकी सैनिकों की अगुवाई में क्या-क्या कहर निर्दोष इराकी जनता पर ढाये जा रहे हैं. वहाँ सद्दाम को आज-कल में पकड़ लेने और इराक में लोकतंत्र का झंडा एक-दो दिनों में फहरा दिए जाने की खबरें चलायी जा रही थीं. तमाम आरोपों के बावजूद इराक़ युद्ध की कहीं ज़्यादा व्यवस्थित खबरें भारत पहुँच रही थीं.
दिनांक ११ सितम्बर २००१ को न्यूयार्क स्थित ट्विन टावर पर हुए हमले के बाद गिरफ्तार अल-कायदा कार्यकर्ताओं को रखने के लिए क्यूबा की धरती पर गुआंतानामो जेल(ख़ास प्रकोष्ठ) साल २००२ में बनायी गयी थी. बाद में इसमें अफ़गानिस्तान युद्ध के तालिबान बंदी लाये गए, उसके बाद इराक़ युद्ध के दौरान पकड़े गए लोग ठूंसे गए. इस जेल में अमरीकियों द्वारा विदेशी कैदियों पर ढाये गए अमानुषिक, लोमहर्षक लैंगिक अत्याचारपिशाचों को भी शर्मिन्दा कर देने वाले हैं. लेकिन अमेरिकी जनता को इनकी भनक भी नहीं लगने दी गयी. अत्याचार करने वालों में यूएस महिला सैनिक भी शामिल थीं!
यह तो तकरीबन 3 साल पहले भांडा फूटा और दुनिया के सामने अमेरिका का मुंह काला हो गया. अब जाकर गुरु (१२/०६/२००८) को यूएस सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इन कैदियों को अमेरिकी संविधान के तहत न्याय मिलेगा, इस पर यूएन ने भी ताली बजाई है. देखने वाली बात यह है कि जनता के सामने बात खुल जाने के बाद अब आगामी राष्ट्रपति चुनाव के दोनों प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेट बराक ओबामा और रिपब्लिकन जॉन मकैन भी इस जेल को ख़त्म कर देने के वादे करते नहीं अघा रहे.
इसी तरह जिस दिन से ब्लोगों और अन्य माध्यमों से इराक़ युद्ध की विभीषिका की तस्वीर साफ होना शुरू हुई उसी दिन से राष्ट्रपति बुश को अपनी जनता से नज़रें चुरानापड़ रही हैं. हर दूसरे-चौथे दिन सफाई देते रहते हैं और इस बार का राष्ट्रपति चुनाव जिन मुद्दों पर लड़ा जाना है, उनमें से यह एक बड़ा मुद्दा होगा. और अमेरिकी मीडिया हर बार के राष्ट्रपति चुनाव की तरह अमेरिका की शानदार 'हेट कैम्पेन' परम्परा का सक्रिय सहयोगी बन जायेगा.आख़िर विश्व में अमेरिकी पूंजी का तांडव होने से उसकी झोली में भी तो डॉलर बरसते हैं.
एक अच्छी बहस को दुबारा सिरे से थामकर आपने राह पर लाने का सत्कार्य किया है विजय भाई. यह एक शुभसंकेत है.
जवाब देंहटाएंअमेरिकाजी की आदत बड़ी खराब है।
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