शनिवार, 18 जनवरी 2020

डोनाल्ड ट्रंप चुनाव भले हार जाएं लेकिन महाभियोग से बच निकलेंगे!


संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड जे. ट्रंप भले ही बड़बोलेपन में कहते फिर रहे हों कि जब उन्होंने बुश वंश, क्लिंटन वंश और ओबामा को हरा दिया था तो उनके खिलाफ चलाया जा रहा महाभियोग क्या चीज है, लेकिन आगामी चुनाव हारने की आशंका से उपजी धुकधुकी वे छिपा नहीं पा रहे. वह कह रहे हैं कि महाभियोग की कार्रवाई पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण है और उन्हें एक 'फर्जी' प्रक्रिया से गुजरना होगा ताकि डेमोक्रेट (रिपब्लिकन ट्रंप के विपक्षी सांसद) इसे आजमा सकें और राष्ट्रपति पद का उनका उम्मीदवार चुनाव जीत सके.
महाभियोग की वर्तमान प्रक्रिया को लेकर ट्रंप ने दलील पेश की है कि 1692-93 के दौरान सालेम, मैसाचुसेट्स में डायन और भूत-प्रेत बताकर फांसी पर चढ़ाई गई बदकिस्मत महिलाओं और पुरुषों के जितनी यथोचित प्रक्रिया से भी उन्हें वंचित रखा गया है. लेकिन ट्रंप चाहे जितना विक्टिम कार्ड खेलें और अपने पक्ष में सहानुभूति जुटाने की कोशिश कर लें, अमेरिकी संसद के उच्च सदन सीनेट में उनके खिलाफ ऐतिहासिक महाभियोग की सुनवाई शुरू हो चुकी है. ट्रंप की धुकधुकी का कारण मात्र यह नहीं है कि सदन में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत बारीक है, बल्कि यह भी है कि आरोपों की गंभीर प्रकृति को देखते हुए शक्तिशाली मीडिया और अधिकतर अमेरिकी मतदाता उनके खिलाफ हो गए हैं, जिससे हार का खतरा बढ़ गया है. यदि ट्रंप से मतभेद रखने वाले कुछ रिपब्लिकन सांसदों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट कर दिया तो उनको राष्ट्रपति पद से भी हटना पड़ जाएगा. लेकिन क्या वाकई ऐसा होगा?
ट्रंप पर आरोप है कि उन्होंने 2020 के आगामी राष्ट्रपति चुनाव के अपने संभावित प्रतिद्वंद्वी जो बिडेन की छवि खराब करने के लिए यूक्रेन से गैरकानूनी रूप से मदद मांगी. बता दें कि बिडेन के बेटे हंटर यूक्रेन की एक ऊर्जा व गैस कंपनी ‘बरीस्मा’ में बड़े अधिकारी के पद पर हैं. ट्रंप ने हंटर बिडेन के कारोबार के बारे में जानकारियां मांगी थीं, जिनका इस्तेमाल वह अपने चुनाव प्रचार के दौरान कर सकते थे. दूसरा आरोप यह है कि उन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए यूक्रेन को मिलने वाली आर्थिक मदद को रोक दिया और दस्तावेजों को दबाकर, सफेद झूठ और वाक्छल का इस्तेमाल करके, अपने स्टाफ या मंत्रिमंडल के किसी भी सदस्य को गवाही देने से रोक कर और कांग्रेस के सम्मनों का जवाब देने में नाकाम रहकर कांग्रेस को बाधित किया. अमेरिकी संविधान के मुताबिक ये दोनों ही ऐसे अपराध हैं, जिनके सिद्ध होने पर राष्ट्रपति को पद से हटाया जा सकता है.
अमेरिका के इतिहास में ऐसा तीसरी बार है जब सीनेट चैंबर उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में महाभियोग की अदालत में तब्दील हो गया हो! उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट ने सांसदों को सीनेट में मौजूद 99 सांसदों को शपथ दिलाई कि वे इस बारे में निष्पक्ष निर्णय लेंगे कि अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति को पद से हटाया जाए या नहीं. ट्रंप से पहले अमेरिकी राष्ट्रपति एंड्रयू जॉनसन के खिलाफ 1868 में और बिल क्लिंटन के खिलाफ 1998 में महाभियोग लगाया गया था, लेकिन अब तक किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा पद से हटाया नहीं जा सका. राष्ट्रपति निक्सन ने तो महाभियोग चलाए जाने से पहले ही अपना इस्तीफा सौंप दिया था और वाटरगेट टेप सार्वजनिक होने के बाद उन्होंने सबके सामने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह सिरे से झूठ बोलते चले आ रहे हैं.
एंड्रयू जॉनसन के विरुद्ध आरोप था कि उन्होंने तत्कालीन रक्षा सचिव एडविन स्तेंटन को हटाकर उनकी जगह मेजर जनरल लोरेंजो थॉमस को नियुक्त करने का प्रयास किया और अंततः जनरल उलिसिस ग्रांट को अंतरिम रक्षा सचिव नियुक्त किया, जो 1867 में अमेरिकी कांग्रेस द्वारा पारित टेन्योर ऑफ ऑफिस एक्ट का स्पष्ट उल्लंघन था. बिल क्लिंटन के विरुद्ध आरोप यह था कि उन्होंने अरकांसस राज्य की पूर्व कर्मचारी पाउला कॉर्बिन जोंस द्वारा दाखिल यौन अपराध के मुकदमे में स्वयं के, जोंस और मोनिका लेविंस्की के संबंधों को लेकर झूठ बोला और न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास किया.
पूर्व राष्ट्रपतियों की भांति ट्रंप के खिलाफ भी झूठ बोलने और अमेरिकी कांग्रेस को बाधित करने के ही आरोप लगे हैं. उन पर हैरानी भरा आरोप यह भी है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर जेलेंस्की यदि हंटर बिडेन के कारोबार की जांच करने की हामी भर देते तो आर्थिक सहायता बहाल हो जाती! अब संसद की निगरानी समिति ने नया रहस्योद्घाटन किया है कि संसद की स्वीकृति के बावजूद व्हाइट हाउस ने यूक्रेन को दी जाने वाली सैन्य सहायता पर भी रोक लगा रखी है, जो यह कानून का स्पष्ट उल्लंघन है. चूंकि अमेरिका में चुनावी मौसम शुरू हो चुका है इसलिए स्वाभाविक रूप से यह मुद्दा भी एक राजनीतिक बवंडर की शक्ल ले चुका है और ट्रंप बुरी तरह घिर गए हैं.
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या पूर्व राष्ट्रपतियों की तरह ट्रंप भी महाभियोग से बच निकलेंगे या उन्हें पद से हटना पड़ेगा और कोई सजा मिलेगी? ट्रम्प मूल रूप से राजनेता नहीं, एक सफल निर्माण कारोबारी और होटल व्यापारी रहे हैं और इस धंधे को उन्होंने जिस अकड़ के साथ किया है, उसका वर्णन उन्होंने अपनी किताब ‘आर्ट ऑफ द डील’ में किया भी है. दक्षिणपंथियों द्वारा अपनाए जाने वाले सारे हथकंडे अपनाने में वह माहिर हैं. अमेरिकी अर्थव्यवस्था को खुद नए संकट में डालने वाले ट्रंप ने मतदाताओं को आशंकित करते हुए कहा है कि अगर चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत होती है तो अर्थव्यवस्था तबाह हो जाएगी और शेयर बाजार डूब जाएगा.
अमेरिका में ट्रंप और उनकी रिपब्लिकन पार्टी श्वेत वर्चस्ववाद की पैरोकार है. ट्रंप का मानना है कि अमेरिका में सिर्फ श्वेतों को ही सच्चे नागरिक के रूप में समझा जा सकता है और बाहर से आने वाले महज परिस्थितिजन्य अमेरिकी हैं. इसी मान्यता के चलते ट्रंप ने अमेरिकी कांग्रेस की चार गैर-श्वेत महिला सदस्यों को अपने देश लौट जाने के लिए कह दिया था. उन्होंने बिना वारंट के छापा मारने को मंजूरी दी थी ताकि करीब 110 लाख ऐसे लोगों का प्रत्यर्पण किया जा सके, जिनके पास अमेरिकी दस्तावेज नहीं हैं, हालांकि ये लोग वर्षों से अमेरिका में रह रहे हैं. पिछले नवंबर में ट्रंप ने धमकी दी थी कि अमेरिका में जन्म लेने मात्र से नागरिकता मिलने की गारंटी खत्म की जा सकती है. जबकि अमेरिकी संविधान का 14वां संशोधन स्पष्ट करता है कि जो भी अमेरिका में जन्मा है, वह अमेरिकी नागरिक है.
श्वेत श्रेष्ठता वाला नस्लवाद रिपब्लिकन पार्टी के मूल में है, जो ट्रंप के हर बयान से झरता है. उन्होंने बेधड़क होकर मैक्सिको के निवासियों को "बलात्कारी", महिलाओं को "मादा सुअर" और "कुतियों" के रूप में चित्रित किया था और बड़ी ढिठाई के साथ यह घोषित किया था कि वह न्यूयॉर्क स्थित फिफ्थ एवेन्यू के ऐन बीच में खड़े होकर एक भी मतदाता खोए बगैर या कोई मुसीबत झेले बिना किसी को भी गोली से उड़ा सकते हैं! अश्वेत डेमोक्रेट बराक ओबामा का राष्ट्रपति चुना जाना रिपब्लिकन श्वेत नस्लवादियों के लिए नाकाबिले बर्दाश्त ठहरा था. उन्हें लगा कि जिस अमेरिका को वे जानते-पहचानते थे कि वह उनकी आंखों से सामने से नदारद हो गया है, उसे ‘पुनर्प्राप्त’ करना ही होगा. दरअसल डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में समय चक्र को इतना पीछे ले जाना चाहते हैं, जहां चुने हुए जनप्रतिनिधि भी खुल कर नस्ली श्रेष्ठता की बोली बोल सकें.
इस मानसिकता को देखते हुए नहीं लगता कि रिपब्लिकन सांसदों के बहुमत वाली सीनेट में छोटे-मोटे आपसी मतभेदों के बावजूद ट्रंप के राष्ट्रपति पद को कोई खतरा पैदा होगा. ट्रम्प की नजर में चुनाव से ठीक पहले महाभियोग की कार्रवाई शुरू हो जाना सुर्खाब के पर लगने जैसी किसी उपलब्धि की तरह है, और इससे बच निकलने को, जिसका उनको भी पूरा यकीन है, वह अपने मुकुट में जड़े एक और हीरे की तरह बखान करते फिरेंगे.

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

मुंबई का अंडरवर्ल्ड और राजनीतिक वर्ल्ड एक-दूसरे को खाद-पानी देते रहे हैं!


शिवसेना के राज्यसभा सांसद और प्रवक्ता संजय राउत बयानबहादुर आदमी हैं. अपने बयानों को जब वे शेरो-शायरी की चासनी में भिगो कर पेश करते हैं तो मामला बड़ा रंगीन हो जाया करता है. लेकिन जब मुंबई में एक मीडिया समूह के कार्यक्रम के दौरान उन्होंने दावा किया कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अंडरवर्ल्ड डॉन करीम लाला से दक्षिणी मुंबई के पायधुनी इलाके में मिला करती थीं, तो मामला रंगीन होने की जगह संगीन हो गया, क्योंकि उनकी पार्टी शिवसेना महाराष्ट्र में जिस बैसाखी के सहारे गठबंधन की सरकार चला रही है, उसकी एक टांग कांग्रेस भी है.
अपने पत्रकारिता वाले नॉस्टैल्जिया में डूबकर राउत ने एक के बाद एक खुलासा करते हुए कहा था कि अस्सी के दशक में दाऊद इब्राहिम, छोटा शकील, शरद शेट्टी जैसे मुंबई के डॉन ही तय किया करते थे कि मुंबई पुलिस का कमिश्नर कौन होगा और कौन राज्य सचिवालय में बैठेगा और कौन मंत्रालय में बैठेगा! और यह भी कि हाजी मस्तान जब मंत्रालय पहुंचता था तो पूरा सचिवालय काम-धाम छोड़कर उसे देखने पहुंच जाता था! हालांकि राउत ने गांधी परिवार के प्रति सम्मान जताते हुए आज सफाई दे दी है कि इंदिरा जी करीम लाला से पठानों के नेता के रूप में मिलती थीं, किसी डॉन के रूप में नहीं. लेकिन महाराष्ट्र सरकार को अस्थिर करने का कोई मौका न चूकने वाली शिवसेना की पूर्व पार्टनर बीजेपी स्वभावतः राउत के इन हवाहवाई विवरणों को लेकर शिवसेना और कांग्रेस दोनों पर हमलावर हो गई है.
नब्बे के दशक में बाल ठाकरे का धमाकेदार इंटरव्यू लेकर लाइमलाइट में आए और कभी मराठी दैनिक ‘लोकसत्ता’ के स्टार पत्रकार रहे संजय राउत की आज एक शिवसेना नेता के रूप में सफाई और मजबूरी समझी जा सकती है. लेकिन यह बात सच है कि मुंबई के अंडरवर्ल्ड का राजनीतिक और फिल्मों से ऑफ द रिकॉर्ड चोली-दामन का नाता रहा है. यहां बॉलीवुड और अंडरवर्ल्ड के रिश्तों का जिक्र करना विषयांतर होगा. लेकिन मुंबई के प्रथम स्थापित डॉन हाजी मस्तान के गोद लिए बेटे सुंदर शेखर के मुताबिक, जिन्हें मस्तान सुलेमान मिर्जा कह कर बुलाता था, इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी जब भी मुंबई (तत्कालीन बंबई) आते थे, डैडी (मस्तान) से मिलते थे. ऐसे में इंदिरा जी को लेकर संजय राउत की बातें हवाहवाई नहीं लगतीं.
सत्तर और अस्सी के दशक की राजनीति के ट्रेंड को ट्रैक किया जाए तो वह घटनाक्रम उल्लेखनीय जान पड़ता है जिसके तहत कांग्रेस ने मुंबई में जड़ें जमा चुकी वामपंथी राजनीति को उखाड़ फेंकने के लिए शिवसेना को परदे के पीछे से आगे बढ़ाया था. उसी जमाने में कुख्यात तस्कर हाजी मस्तान के मुंबई ही नहीं बल्कि पूरे भारत में बढ़ते ग्लैमर और सामाजिक असर से भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चिंतित रहती थीं. कहा जाता है कि मस्तान ने सरकार के प्रशासन में अपना ऐसा समानांतर सिस्टम स्थापित कर रखा था कि कई रसूखदार नेता भी अपना काम निकलवाने के लिए हाजी मस्तान की शरण में आते थे! मस्तान की गिरफ्तारी का आदेश मिलने पर पुलिस अधिकारी अक्सर बहाने बनाकर निकल लिया करते थे. आश्चर्य नहीं कि मस्तान को कमजोर करने के लिए इंदिरा गांधी ने मस्तान के प्रतिद्वंद्वी पठान गैंगस्टर करीम लाला को शह देने की चाल चली हो!
इंदिरा गांधी ने हाजी मस्तान को 1974 में पहली बार 'मीसा' के अंतर्गत गिरफ्तार करवाया था. लेकिन जब 1975 में इमरजेंसी लगने पर मस्तान को दूसरी बार गिरफ्तार किया गया तो सुनते हैं कि उसने इंदिरा गांधी को अपनी रिहाई के बदले सड़कों पर नोट बिछा देने की पेशकश की थी! जेल काटने के बाद हाजी मस्तान समझ चुका था कि लोहा ही लोहे को काट सकता है. लिहाजा उसने राजनीति का रुख किया और 1984 के दौरान मुंबई और भिवंडी में हुए दंगों के बाद बने माहौल का फायदा उठाते हुए दलित नेता प्रोफेसर जोगेंद्र कवाड़े के साथ मिलकर एक राजनीतिक दल ‘दलित मुस्लिम सुरक्षा महासंघ’ बना लिया. यह अलग बात है कि तस्करी की दुनिया का बेताज बादशाह हाजी मस्तान राजनीति की दुनिया का मामूली प्यादा भी न बन सका. अपराध की दुनिया में अपना सूरज ढलता देख कर ही मस्तान ने महाराष्ट्र; खासकर मुंबई में शिवसेना का विकल्प बनने इरादे से खुद की राजनीतिक पार्टी गठित की थी.
जैसा कि मशहूर है कि हर अपराधी छटपटाकर आखिरकार अपनी पनाहगाह राजनीति में ही ढूंढ़ता है और सफेदपोश बनना चाहता है. मस्तान के नक्शेकदम पर चलते हुए मुंबई के कई कुख्यात गैंगस्टरों ने पुलिस और अदालत के शिकंजे से बचने के लिए परोक्ष या अपरोक्ष रूप से राजनीति का दामन थामने की कोशिश की और कुछ तो इसमें काफी हद तक सफल भी हो गए. हमेशा झक सफेद कुर्ता व टोपी पहनने वाले तथा मुंबई के अंडरवर्ल्ड में ‘डैडी’ और ‘सुपारी किंग’ के नाम से कुख्यात दाऊद गैंग के दुश्मन अरुण गवली ने भी कानून के डर से राजनीति की शरण ली थी. 2004 में उसने ‘अखिल भारतीय सेना’ नाम से राजनीतिक दल बनाया और उसी साल हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में उसने अपने कई उम्मीदवार उतारे और खुद अपनी दगड़ी चाल वाली चिंचपोंकली विधानसभा सीट से चुनाव जीत गया था. गवली कई बार पकड़ा गया, जेल भी काटी, लेकिन कहा जाता है कि राजनीतिक वरदहस्त और भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों की मदद से वह हर बार बच निकलता था!
विधायक बनने के बाद गवली को लगने लगा कि अब तो उसे कोई टच ही नहीं कर सकता. एक समय था जब शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे डींग मारा करते थे कि अगर पाकिस्तान के पास दाउद है तो भारत के पास गवली है! गैंगवार में गवली का पलड़ा भारी देखते हुए मुंबई के कई बड़े बिल्डर और व्यापारी अपने कारोबार को बढ़ाने और अपने दुश्मनों को निबटाने के लिए गवली की मदद लेते थे. अंडरवर्ल्ड और राजनीतिक के नेक्सस का यह खुला उदाहरण था. यहां तक कि बाल ठाकरे अमर नाईक और गवली को हिंदू डॉन मानते हुए उनके खिलाफ होने वाली पुलिस कार्रवाइयों की कड़ी भर्त्सना किया करते थे! लेकिन जब 2008 में गवली ने 30 लाख रुपए की सुपारी लेकर शिवसेना के ही पार्षद कमलाकर जामसांडेकर की हत्या करवा दी तो शिवसेना गवली के खिलाफ हो गई.
मुंबई के चेम्बूर इलाके का गैंगस्टर छोटा राजन दाऊद गैंग का खासमखास था. लेकिन मुंबई बम धमाकों के बाद जब गैंग में साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन हुआ तो छोटा राजन ने खुद के देशभक्त डॉन बनने का बड़ा स्कोप देखा और उसने दाऊद के करीबी गैंगस्टरों को सजा देने की कसम खाई. इसमें भी उसे बाल ठाकरे का ‘नैतिक’ समर्थन मिल गया था. दूसरी तरफ देखें तो रॉ के एक पूर्व अधिकारी एनके सूद ने कुछ साल पहले यह कह कर बड़ा धमाका किया था कि शरद पवार और अहमद पटेल जैसे कुछ प्रमुख भारतीय राजनीतिज्ञों के दाऊद इब्राहीम से करीबी संबंध रहे हैं!
हालांकि आरोप लगा देने या नाम उछाल देने से ही कोई बात साबित नहीं हो जाती. इंदिरा गांधी को लेकर संजय राउत ने जो बयान दिया है, उसके सबूत पेश करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की बनती है. लेकिन ऊपर के चंद उदाहरण यह बताने के लिए काफी हैं कि मुंबई का अंडरवर्ल्ड और राजनीतिक वर्ल्ड एक दूसरे को धर्मनिरपेक्ष ढंग से खाद-पानी देते रहे हैं.
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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विश्वविद्यालयी हिंसा देश का भविष्य तबाह होने की राह पर ले जाएगी


संस्कृत वांङमय में प्राचीन भारत के छात्रों के लिए कहा जाता था- “काकचेष्टा बकोध्यानम्‌ श्वाननिद्रा तथैव च: । श्वल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थिति पंच लक्षणम्‌॥“ अर्थात्‌ विद्यार्थी को कौव्वे की तरह जानने (ज्ञानप्राप्ति) की सतत चेष्टा करते रहना चाहिए, बगुले की तरह ध्यान केंद्रित करना (पढ़ाई में) चाहिए, कुत्ते की तरह सजग और सचेत मुद्रा में सोना चाहिए, उसे पेटू नहीं होना चाहिए और घर के मोह से मुक्त होना चाहिए।
लेकिन वर्तमान भारत में ये सारे लक्षण शीर्षासन करने लगे हैं। उपर्युक्त श्लोक विकृत ढंग से विद्यार्थियों से अधिक प्रशासकों पर सटीक बैठ रहा है। अध्यापकों और कुलपतियों की काकचेष्टा, बकोध्यान और श्वाननिद्रा शिक्षेतर गतिविधियों पर केंद्रित होकर रह गई है। राजनीतिक के ओवरडोज ने शैक्षणिक संस्थानों को स्कोर सेटल करने के अखाड़ों में तब्दील कर दिया है और छात्र इस या उस विचारधारा का झंडा उठाने वाले कार्यकर्ता बन कर रह गए हैं!
इसे दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाए कि भारत के जिन विश्वविद्यालय कैम्पसों को छात्रों के सर्वांगीण विकास का स्वर्ग होना चाहिए था, विभिन्न मान्यताओं, सिद्धांतों और शिक्षण-पद्धतियों का कोलाज बनना था, आज वे बदले की राजनीति, असहिष्णुता, वैचारिक सफाए और दुर्भावनापूर्ण कार्रवाइयों की आश्रय-स्थली बन गए हैं! हिंसा इक्कीसवीं शताब्दी के समाप्त होने जा रहे पहले दशक की अखिल विश्वविद्यालयी परिघटना रही है। अब तो छात्रों को खुलेआम ‘अर्बन नक्सल’ करार दिया जा रहा है और उनकी अभिभावक केंद्र सरकार तथा कुलाधिपति खामोश हैं, असंख्य पूर्व छात्रों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी होने के बावजूद विश्वविद्यालयों के सांस्थानिक रहनुमा धृतराष्ट्र बने बैठे हैं!
छात्रों के विभिन्न गुटों के बीच वैचारिक मतभेद, राजनीतिक सक्रियता, चुनावी झड़पें और युवकोचित हिंसा इन कैम्पसों के लिए कोई नया फिनॉमिना नहीं है। जो लोग छात्रों को सिर्फ अपनी पढ़ाई से ही काम रखने की नसीहतें देते हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि छात्र राजनीति और छात्र-संघों का सुनहरी इतिहास आजादी से पहले ही लिख दिया गया था। फिर चाहे वह 1920 का असहयोग आंदोलन हो, जिसमें छात्रों ने अपने-अपने शिक्षण संस्थानों का बहिष्कार किया था और कइयों ने पढ़ाई अधर में छोड़ दी थी या 1930 में छिड़े सविनय अवज्ञा आंदोलन का दौर हो, जब छात्र अहिंसक आंदोलन किया करते थे और विदेशी वस्त्रों की होलियां जलाते थे। आजादी के बाद आपातकाल के दौर में जीवनावश्यक वस्तुओं की बढ़ती महंगाई के विरोध में छात्र सड़कों पर उतरे। जेएनयू के छात्रों के विरोध के चलते ‘आयरन लेडी’ इंदिरा गांधी तक को चांसलर का पद छोड़ना पड़ा था। नब्बे के दशक में वीपी सिंह द्वारा लागू किए गए मंडल कमीशन के विरोध की राष्ट्रव्यापी चिंगारी एक छात्र राजीव गोस्वामी ने ही जलाई थी। अन्ना हजारे का आंदोलन हो या निर्भया कांड के खिलाफ पैदा आक्रोश, छात्रों ने बिना किसी पूर्वग्रह के हर जरूरी मौके पर बल भर आवाज बुलंद की है। जेपी आंदोलन से निकले कितने ही छात्र नेता आज केंद्र और राज्य सरकारों का महत्वपूर्ण हिस्सा बन कर अपनी बुजुर्गी काट रहे हैं।
लेकिन हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि केंद्र में पीएम मोदी की अगुवाई में दक्षिणपंथी रुझान वाली सरकार का पहला कार्यकाल शुरू होते ही वामपंथी विचारों के दबदबे वाला जेएनयू कैम्पस छात्र हिंसा-चक्र की धुरी बना कर उभारा गया है। उसे 'राष्ट्रविरोधी' गतिविधियों तथा ‘व्यभिचार’ का केंद्र प्रचारित करके लगातार उसकी छवि काली करने की कोशिश की गई है। जबकि जेएनयू ने बार-बार ‘यूनिवर्सिटी ऑफ इक्सीलेंस’ का खिताब जीतकर तमाम दुष्प्रचार को मिथ्या साबित किया है। जेएनयू ही नहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, अलीगढ़ विश्वविद्यालय, बीएचयू और जामिया मिलिया इस्लामिया समेत केरल के कई विश्वविद्यालय परिसर भी शिक्षेतर वजहों से उपजी हिंसक कार्रवाइयों का शिकार बने हैं। विश्वविद्यालयी हिंसा के नए अध्याय में कैम्पसों के भीतर पुलिस की लाठी-गोली हावी हो चली है। चित्र यही उभरता है कि पठन-पाठन के तीर्थों को अपवित्र किया जा रहा है।
यह भी आईने की तरह साफ है कि देश के अलग-अलग कैम्पसों की हिंसक झड़पों में परस्पर विरोधी विचारपद्धतियों से पोषित एवं संवर्द्धित छात्र संगठनों के बीच होने वाले टकराव की अहम भूमिका रही है। नाम लेकर कहें तो वामपंथी आधार वाले छात्र संगठनों (आइसा, डीएसएफ , डीवायएफआई और एसएफआई आदि), कांग्रेस समर्थित एनएसयूआई और दक्षिणपंथी रुझान वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्‌ (एवीबीपी) की रस्साकसी ने बार-बार इन हिंसक घटनाओं को जन्म दिया है। चूंकि एवीबीपी सत्तारूढ़ दल बीजेपी का छात्र-मोर्चा है, इसलिए हर मामले में उसके सदस्यों को एडवांटेज मिलता है। एवीबीपी का सूत्र-वाक्य है- “छात्र शक्ति, राष्ट्र शक्ति”। लेकिन जान पड़ता है कि वे अपनी परिषद्‌ से बाहर के छात्रों के लिए कोई शक्ति शेष नहीं छोड़ना चाहते! एवीबीपी को मजबूत करने के इरादे से सत्ताधारी खेमे के नेता और संघ प्रचारक अक्सर कैम्पसों के माहौल को 'राष्ट्रवादी' बनाने के लिए प्रशासन की तरफ से कभी 'करगिल विजय दिवस' तो कभी 'दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद' के नाम पर बड़े-बड़े आयोजन करवाते रहते हैं। जेएनयू में तो वीसी जगदीश कुमार ने छात्रों में राष्ट्रवाद की भावना जगाने के लिए तीन साल पहले कैंपस के अंदर सेना का वास्तविक टैंक रखवाने की मांग की थी।
आदर्श स्थिति तो यही है कि हमारे विश्वविद्यालय पूर्ण सरकारी सहयोग और समर्थन से अंतरराष्ट्रीय स्तर की शैक्षणिक गुणवत्ता और शोध के लिए विख्यात हों। उन्हें कद्दावर नेता, राजनयिक, कलाकार और अपने-अपने क्षेत्रों के अधिकारी विद्वान तैयार करने के लिए जाना जाए। लेकिन आज देश-विदेश में इनकी शोहरत- छात्र-आत्महत्या, साजिश के अड्डों, लाठी, पत्थर और लोहे की छड़ें लेकर घूमने वाले नकाबपोशों, होस्टलों में घुस कर किए जाने हमलों, धरना-प्रदर्शनों, गलाफाड़ नारेबाजी, देशद्रोह के मुकदमों, जातिगत भेदभाव, विषमानुपातिक शुल्क-वृद्धि आदि के लिए ज्यादा फैल रही है।
कभी कैम्पसों के माहौल में अकादमिक स्वायत्तता, छात्र-संघों के चुनाव, विश्वविद्यालय प्रशासन में छात्र-संघों का दखल, प्रवेश-प्रक्रिया में बदलाव, पढ़ने-पढ़ाने की भाषा, पुस्तकालयों और अन्य संसाधनों की कमी, अनुदान कटौती और शुल्क-वृद्धि जैसे मुद्दे गरमी पैदा किया करते थे, लेकिन अब कश्मीर की आजादी, अनुच्छेद 370, एनआरसी, पाकिस्तान, अफजल गुरु, जिन्ना, नागरिकता कानून, तिहरा तलाक, राम मंदिर, सबरीमला, मॉब लिंचिंग, मूर्तिभंजन, संविधान का निरादर, चार्जशीट, कंडोम, नियुक्तियों का अतार्किक विरोध जैसे मुद्दे उबाल पैदा करते हैं। इन मुद्दों को राजनीतिक दल अपने-अपने स्वार्थों के चश्मे से देखते-तोलते हैं लेकिन छात्रों की समस्याओं को घोषणा-पत्रों का हिस्सा कभी नहीं बनाते।
विश्वविद्यालय कैम्पस के भीतर अगर छात्र राजनीति करते हैं, तो आप उसे कदाचार का नाम नहीं दे सकते। उच्च शिक्षा का उद्देश्य सरकारी कारकून तैयार करना नहीं बल्कि युवकों का सर्वांगीण व्यक्तिगत और चारित्रिक विकास करना होता है। अगर कल के नीति निर्माता आज की समस्याओं पर विचार-मंथन नहीं करेंगे तो सटीक समाधान निकालने और निर्णय लेने की क्षमता उनमें कैसे विकसित होगी? वंशवाद की राजनीति का खात्मा कैसे होगा? इसीलिए छात्र-राजनीति को समकालीन राष्ट्रीय परिदृश्य का प्रतिबिम्ब कहा जाता है। यह देश को प्रभावित करने वाले मुद्दों से जुड़ाव, नागरिक समस्याओं के प्रति जागरूकता और समाज का वर्गीय प्रतिनिधित्व कैम्पस में ही पैदा कर देती है। शिक्षा का असल मतलब डिग्री हासिल करके कोई नौकरी पकड़ लेना नहीं होता, बल्कि अच्छे और बुरे के बीच चुनाव करने की सलाहियत पैदा करके अच्छाई के हक में आवाज बुलंद करना उसका मूल उद्देश्य होता है।
हमारे कैम्पसों में हिंसा की बाढ़ का कारण शैक्षणिक अथवा राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर होने वाली छात्र राजनीति नहीं है। इस हिंसा का असली कारण सरकार से असहमत छात्रों को भयभीत करने के लिए सत्तारूढ़ दल समर्थित छात्र विंग को शह और अभयदान दिया जाना है। मामला इस हद तक जा पहुंचा है कि जिन छात्र-छात्राओं का माथा फूटता है, एफआईआर उन्हीं के खिलाफ दर्ज करवा दी जाती है! राहत इंदौरी का शेर याद आता है- “अब कहां ढूंढने जाओगे हमारे कातिल / आप तो कत्ल का इल्जाम हमीं पर रख दो।”
अगर कोई हिंसक हथियारबंद भीड़ भारत के सबसे शानदार और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में घुस कर मारकाट और तोड़फोड़ कर सकती है और सुरक्षा में तैनात पुलिस छात्रावास, छात्रों व अध्यापकों की सुरक्षा करने में नाकाम रहती है; अपने आकाओं के इशारों पर उपद्रवी छात्र-छात्राओं को गिरफ्तार नहीं करती, तो ऐसे हालात में आखिर देश का कौन-सा कैम्पस सुरक्षित है? उस पर भी विभिन्न प्रचार-प्रसार माध्यमों के जरिए विरोधी विचारधारा वाले छात्रों को खलनायक, आतंकवादी, देशद्रोही और जाने क्या-क्या साबित करने का राजनीतिक अभियान जारी है। ऐसे में छात्रों पर हिंसक हमलों का खतरा कई गुना बढ़ गया है। लेकिन जो लोग अंधविरोध और समर्थन के वशीभूत होकर किसी भी वैचारिक पक्ष वाले छात्रों के वर्तमान दमन का जश्न मना रहे हैं उन्हें अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि जो समाज छात्रों की पुलिसिया पिटाई और अपने विश्वविद्यालयों में हिंसा का समर्थन करता है, वह अपने भविष्य के तबाह होने की राह पर निकल पड़ता है!
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

फैज की नज्म पर हंगामा क्यों है बरपा?


फैज अहमद फैज की नज्म पर ऐतराज जताने वालों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए आजकल जहां सोशल मीडिया पर “हम फेकेंगे” और “हम बेचेंगे” जैसे उनवानों से उल्था नज्में चलाई जा रही हैं, वहीं कवि बोधिसत्व ने अपने फेसबुक पेज पर मूल रचना “हम देखेंगे” का हिंदी में गंभीर भावानुवाद पेश किया है, जो फैज के पाक इरादों का खुलासा करती है. कृपया आप भी देखें-

।। हम देखेंगे।।
पक्का है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका है वचन मिला
जो "विधि विधान" में है कहा गया
जब पाप का भारी पर्वत भी
रुई की तरह उड़ जाएगा
हम भले जनों के चरणों तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और राजाओं के सिर ऊपर
जब बज्जर बिजली कड़केगी
जब स्वर्गलोक के देव राज्य से
सब पापी संहारे जाएंगे
हम मन के सच्चे और भोले
गद्दी पर बिठाए जाएंगे
सब राजमुकुट उछाले जाएंगे
सिंहासन ढहाए जाएंगे
बस नाम रहेगा "परमेश्वर" का
जो साकार भी है और निराकार भी
जो दृश्य भी है और दर्शक भी
उट्ठेगा “मैं ही ब्रह्म" का एक नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगा "पूर्णब्रह्म"
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
हम देखेंगे!

आम जनता के दुख-दर्द, उसके संघर्ष, समाजी व सियासी मसाइल और टूटे हुए दिलों की तड़प को अपनी शायरी में पिरोने वाले इंकलाबी और रूमानी शायर फैज अहमद फैज एक मुहावरे के मुताबिक अपना ही यह बारीक शेर याद कर करके कब्र में बेचैनी से करवटें बदल रहे होंगे कि “वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था/वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है”. मुहावरे का हवाला इसलिए दे रहा हूं कि फैज तरक्कीपसंद शायरी का मरकज थे और आदमी के खुदा नामक ख्वाब में उनका यकीन नहीं था. ऐसे में कब्र, जन्नत, खल्क-ए-खुदा, अनल-हक, अर्ज-ए-खुदा और बुत जैसे अल्फाज के मानी उनके लिए वही नहीं थे, जो शब्दकोश में लिखे होते हैं. इंसान की जिजीविषा ही उनके लिए पहली और आखिरी हस्ती थी. फैज के लिए ‘बुत’ का मतलब किसी देवता की ‘मूर्ति’ नहीं है, बल्कि इस जमीन पर रहने वाले उन लोगों से है, जो खुद को खुदा समझते हैं और लोगों पर जुल्म-ओ-सितम ढाते हैं. बहरहाल, उनकी शायरी पर तजकिरा पेश करना यहां हमारा मकसद नहीं है, लिहाजा हम सीधे मुद्दे की बात पर आते हैं.

फैज की एक बड़ी मकबूल नज्म है- “हम देखेंगे”. इसे तमाम ऐसे लोग एक हथियार की तरह प्रयोग करते आए हैं, जो हर किस्म की निरंकुशता और जोर-ओ-जब्र की मुखालिफत किया करते हैं; हिंदुस्तान में भी और पाकिस्तान में भी. पिछले दिनों नागरिकता कानून के विरोध में कानपुर आईआईटी के छात्रों ने रैली निकाली, जिसे नाम दिया गया था- ‘इन सॉलिडैरिटी विद जामिया’. उसमें जब फैज की इस नज्म को पढ़ा गया, तो फैकल्टी के कुछ सदस्यों ने इसके संदेश को भारत विरोधी, हिंदू विरोधी और सांप्रदायिक करार देते हुए बाकायदा एक जांच समिति गठित करवा दी! आपत्ति जताने वाले लोग नज्म की इन पंक्तियों- “जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से/सब बुत उठवाए जाएंगे/हम अहल-ए-सफा मरदूद-ए-हरम/मसनद पे बिठाए जाएंगे/सब ताज उछाले जाएंगे/सब तख्‍त गिराए जाएंगे/बस नाम रहेगा अल्लाह का”- पर खास ऐतराज जता रहे हैं. उनको लगता है कि नज्म में इस्लाम का कोई कट्टर अनुयायी काल्पनिक जन्नत का दृश्य प्रस्तुत करते हुए अपनी गहरी आस्था के मुताबिक हश्र के दिन का वर्णन कर रहा है और ‘बुत’ उठवाने की चाह जता कर हिंदुओं की मूर्तिपूजा का विरोध कर रहा है!
मशहूर शायर व फिल्म लेखक-गीतकार जावेद अख्‍तर तथा खुद फैज साहब की बेटी सलीमा हाशमी ने कहा है कि फैज और इस नज्म को हिंदू विरोधी बताना इतना दुखद, अजीब और हास्यास्पद है कि इसके बारे में कोई गंभीर प्रतिक्रिया भी नहीं दी जा सकती. मशहूर-ओ-मारूफ शायर मुनव्वर राणा ठीक ही कह रहे हैं कि हमारे देश के जो मौजूदा हालात हैं, उसमें हर चीज को सांप्रदायिक बनाए बिना सियासतदानों का काम नहीं चलता और नफरत इस देश में आजकल आक्सीजन का काम करती है. अगर यही नज्म राष्ट्रकवि दिनकर या मधुशाला वाले बच्चन साहब ने लिखी होती, तो कोई हंगामा नहीं होता.
मुनव्वर राणा की बात में दम है. आजकल सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं और संगठनों में ऐसे लोगों का कब्जा हो चुका है जो एक खास किस्म से सोचने के लिए प्रशिक्षित किए गए हैं. जिन्हें साहित्य का ‘स’ नहीं मालूम, वे मीर-ओ-गालिब को खारिज कर देते हैं और कबीर-तुलसी-निराला की कविता को इलेक्ट्रिक शॉक देकर परखना चाहते हैं. दरहकीकत फैज ने कहा है कि धरती पर जो भी तानाशाह मौजूद हैं, उन सभी के बुत उठवा दिए जाएंगे. जनता की क्रांति आएगी और सिर्फ एक ताकत राज करेगी, जो ‘खल्क-ए-खुदा’ यानी खुदा की बनाई जनता ही होगी. लेकिन इतनी सी बात भी समझ पाना ‘असाहित्यिक’ और ‘जनविरोधी’ दिमागों के वश की बात नहीं है. कवि-पत्रकार मित्र चंद्रभूषण की राय में उपमाएं कवि के सोचने का तरीका हैं. लेकिन अपनी औकात के पार जाने के लिए उसे रूपकों के जोखिम भरे कारोबार में उतरना पड़ता है, जहां किसी भी बात का कुछ भी अर्थ लगाया जा सकता है.
जाहिर है कि जब खुद कवि के लिए यह चुनौतीपूर्ण कार्य है तो पाठक की विकृत मानसिक बुनावट अनर्थ करने में उत्प्रेरक की भूमिका ही निभाएगी. “हम होंगे कामयाब” पंक्ति का हासिल किसी क्रांतिकारी, भ्रष्ट नेता अथवा डाकू के लिए एकसमान नहीं हो सकता. आखिरकार सब अपने-अपने तरीके से कामयाब ही होना चाहते हैं. इसमें कवि या शायर का क्या दोष है? जिनके मस्तिष्क में ग्रांड कैनियन से भी गहरे सांप्रदायिक सोच वाला तंत्रिका पथ खोद दिया गया है, वे सिंधु और गंगा-यमुना के बहते हुए पानी में भी हिंदू-मुसलमान के रंग खोज लेते हैं. कविता के सकारात्मक और गूढ़ निहितार्थ समझने की तरफ उनकी सोच जा ही नहीं सकती. इस दिशा में प्रशिक्षण देने वाली कोई शाखा भी भारत में नहीं चलाई जा रही है कि उनकी सोच वाला तंत्रिका पथ बदला जा सके.

मजे की बात है कि ऐतराज जताने वाले लोग अपने ड्रांइग रूमों में फैज की रूमानी गजलें सुनकर अपना गम गलत करते हैं लेकिन उनकी शायरी के इंकिलाबी तेवर से परहेज करते हैं. यानी मीठा-मीठा गड़प और कड़वा-कड़वा थू! मेहदी हसन गा दें कि “कर रहा था गम-ए-जहां का हिसाब/आज तुम याद बे-हिसाब आए”, तो इन्हें तन्हाई में महबूबा की बेवफाई याद आ जाएगी और अगर ये शेर सामने पड़ जाए कि “निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां/ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले”, तो इन्हें सांप सूंघ जाएगा!

किस्सा ये है कि फैज ने “हम देखेंगे” नज्म पाकिस्तान को धार्मिक कट्टरता की जहालत में ठेलने वाले तानाशाह जिया उल हक की कारस्तानियों के विरोध में प्रतीकात्मक ढंग से लिखी थी. इसमें उनका कोई धार्मिक दृष्टिकोण नहीं था. अगर यह नज्म हिंदू विरोधी होती तो पाकिस्तान में महिलाओं के साड़ी पहनने तक को प्रतिबंधित करने वाला यह निष्ठुर जनरल इस नज्म को सेंसर करवा कर फैज को जेल में न ठूंसता बल्कि उन्हें ईनाम-ओ-इकराम से नवाजता. जेल में ही बेफिक्र होकर फैज ने लिखा था- “बोल कि लब आजाद हैं तेरे/बोल जबां अब तक तेरी है/तेरा सुतवां जिस्म है तेरा/बोल कि जां अब तक तेरी है”. सच तो यह है कि जिया उल हक की वजह से फैज पाकिस्तान में चैन से नहीं रह पाए. कभी उनको फिलिस्तीन में शरण लेनी पड़ती थी, तो कभी सोवियत रूस में अनुवाद करके पेट पालना पड़ता था, क्योंकि फैज की शायरी भूख, गरीबी, अत्याचार का खात्मा करने के लिए पाकिस्तानी अवाम का आवाहन करती थी और सच का साथ देने वालों के दिलों में सड़क पर संघर्ष करने की आग पैदा करती थी. आजादी के फरेब का पर्दाफाश करते हुए ऐलान करती थी- “ये दाग-दाग उजाला, ये शबगजीदा सहर, वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं”. लब्बोलुबाब यह कि फैज ने हर मुश्किल वक्त में अपनी आवाज बुलंद की और कई पीढ़ियों के मुंह में जबान डाल दी.

यही एक चीज नज्म पर आपत्ति उठाने वालों को खल रही है. स्पष्ट है कि या तो ये लोग सत्ता के साथ हैं या सत्ता से भयभीत हैं. अविभाजित भारत के सियालकोट में जन्मे फैज ने जीते जी पाकिस्तान के हुक्मरानों और मुल्लाओं से पत्थर खाए और मरने के बाद भारत में गालियां खा रहे हैं. फैज की शायरी सियासी सरहदों को लांघने वाली शायरी है. उसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान की मौजूदा बायनरी में कैद करके नहीं देखा जा सकता. क्या दिन आ गए हैं कि शेर-ओ-शायरी की किस्मत सरकारी मशीन के चंद पुर्जे तय करने लगे हैं! इस नुक्ते पर मिर्जा गालिब का यह शेर याद आता है- “या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात/ दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और.”
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

सीएए और एनआरसी के विरोध में उतरी महिलाएं सत्ता की चूलें हिला सकती हैं



इतिहास गवाह है कि एक कट्टर और रूढ़िवादी भारतीय समाज में हिंदू और मुस्लिम महिलाएं 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पहले बड़े पैमाने पर सड़कों पर कभी नहीं उतरी थीं, और हमारी आंखों के सामने इतिहास बन रहा है जब धार्मिक भेदभाव को हवा देने वाले नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के विरोध में करोड़ों भारतीय नागरिकों के साथ हिंदू-मुस्लिम महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर देशव्यापी आंदोलन कर रही हैं. कोलकाता में पिछले हफ्ते एक युवती ने अपने हाथ में जो तख्ती थाम रखी थी, उस पर लिखा संदेश वर्तमान संदर्भों में बेहद मानीखेज है- “मेरे पिता जी को लगता है कि मैं इतिहास की पढ़ाई कर रही हूं; वे नहीं जानते कि मैं इतिहास रचने में मुब्तिला हूं."
दिल्ली के जामिया नगर स्थित मुस्लिम बहुल मोहल्ले शाहीन बाग की महिलाएं बीते दो हफ्तों से ज्यादा समय से सीएए और एनआरसी के खिलाफ अहिंसक प्रदर्शन करती आ रही हैं. कुछ महिलाएं तो कई दिनों से घर ही नहीं गई हैं, अन्य महिलाएं अपने बाल-बच्चों के साथ धरने पर बैठी हैं. अशिक्षित होने के बावजूद अनगिनत महिलाएं इस बात से पूरी तरह वाकिफ हैं कि राष्ट्रव्यापी एनआरसी लागू करने की सरकारी योजना में दांव पर क्या लगा हुआ है. ये सभी समझती हैं कि महिलाएं ज्यादा असुरक्षित एवं सहज शिकार बन जाने की स्थिति में होती हैं: संपत्ति के कागजात आम तौर पर पुरुषों के नाम पर होते हैं, और कइयों के पास तो भारतीय नागरिकता साबित करने हेतु जरूरी दस्तावेज ही नहीं हैं. असम में संपन्न एनआरसी गवाह है कि वहां के हिंदीभाषी और बंगाली समुदाय के जिन लोगों ने असम से बाहर शादी की थी, उनकी पत्नियों का नाम कट चुका है. उन महिलाओं ने अपने-अपने मायकों से दस्तावेज जुटाए थे लेकिन वे निर्धारित अर्हताओं पर खरे नहीं उतरे. महिलाओं के मन में व्याप्त असुरक्षा का अंदाजा लगाया जा सकता है क्योंकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट कह दिया है कि देशव्यापी एनआरसी में आधार कार्ड वगैरह से काम नहीं चलेगा.
बात सिर्फ शाहीन बाग ही नहीं है; मुंबई, औरंगाबाद, बैंगलोर, जयपुर, पटना, चेन्नई जैसे शहरों में महिलाओं ने खामोश प्रदर्शन किए हैं. धरना-प्रदर्शनों में जिस नारे ने सबका ध्यान खींचा, वो था- “जब हिंदू-मुस्लिम राजी, तो क्या करेगा नाजी?” अभिनेत्री रेणुका शहाणे ने पीएम को संबोधित करते हुए ट्वीट किया- “असली टुकड़े-टुकड़े गैंग आपका आईटी सेल है सर!... उन्हें नफरत फैलाने से रोकिए.” यह महिलाओं की इतिहास दृष्टि, गहरी राजनीतिक समझ, हालात पर पैनी नजर, निर्भीकता, कल्पनाशीलता, आत्मसंयम और बेहद अनुशासित होने का द्योतक है. प्रतिरोधी आंदोलन में महिलाओं की उपस्थिति, उनकी दृढ़ता और अहिंसक प्रवृत्ति ही इस दावे को खारिज करने के लिए काफी है कि इन प्रदर्शनों को "विपक्ष" अथवा "बाहर से उकसावा देने वालों" द्वारा हवा दी गई है. इन विरोध प्रदर्शनों के निहितार्थ बड़े गहरे हैं. भारतीय महिलाओं ने जामिया मिलिया और समूचे उत्तर प्रदेश में अनाहूत क्रूर पुलिसिया हिंसा के सामने अपनी अहिंसा की ताकत और संविधान के प्रति निष्ठा दिखा दी है.
गौर करने की बात यह है कि इन महिलाओं को आप वर्गीकृत करना चाहें, तो बड़ी मुश्किल होगी. इनमें फिल्म अभिनेत्रियों से लेकर शिक्षिकाएं, नर्सें, निजी दफ्तरों की कामकाजी महिलाएं, स्कूली पढ़ाई से लेकर उच्चतर शोध करने वाली छात्राएं, रोज कुआं खोदने और रोज पानी पीने वाली मजदूरिनें, बुरके में सरापा ढंकी महिलाएं, बालों को हिजाब में छुपाती युवतियां, गृहणियां- यानी जीवन के हर क्षेत्र से जुड़ी हर आयु-वर्ग की पेशेवर और आम महिलाएं शामिल हैं. घरों से निकलकर सड़क पर उतरी इन महिलाओं में अधिकांश संख्या उनकी है, जो अशिक्षित हैं, परिजनों से भयभीत हैं लेकिन पुलिस की लाठी से जरा भी नहीं डरतीं! पहचाने जाने के डर से कुछ तो अपना पूरा या असली नाम भी नहीं बताना चाहतीं लेकिन सीएए और एनआरसी के आसन्न खतरों को वे अपनी टूटी-फूटी भाषा से लेकर अंग्रेजी और परिष्कृत हिंदी में जबान दे रही हैं.
कई महिला आंदोलकारी हर दशक की शुरुआत में होने वाली जनगणना, एनपीआर 2010, एनपीआर 2019 और एनआरसी के बीच के फर्क को बड़ी स्पष्टता से खोल कर रख रही हैं. वे डिटेंशन शिविरों की हकीकत और हालात से भी वाकिफ हैं और इस मामले में बोले गए मोदी-शाह के झूठ को भी भीड़ के सामने उजागर करती हैं. वे इस बात का भी खुलासा करती हैं कि बाप-दादाओं के दस्तावेज जुटाने में भारतीयों, खासकर गरीबों और मध्य वर्ग के नागरिकों के सामने कैसी-कैसी मुसीबतें पैदा होंगी. एनआरसी, एनपीआर और सीएए की उपयोगिता को लेकर प्रधानमंत्री मोदी, केंद्रीय गृह-मंत्री अमित शाह और केंद्र सरकार के अन्य मंत्रियों द्वारा दिए गए बयानों का अंतर्विरोध सबके सामने ला रही हैं. जामिया की तीन छात्राएं-आयशा रेना, लबीदा फरजाना और चंदा यादव तो पुलिस की लाठियों के सामने एक साथी छात्र की ढाल बन गई थीं. उन्हें लाठी भांजने वाले पुलिसकर्मियों और साथी छात्र के बीच में पड़ कर प्रतिवाद करते हुए और अकल्पनीय क्रूरता के लिए पुलिसवालों को फटकार लगाते हुए देखा जा सकता है.
अब तक महिलाएं प्रायः लैंगिक भेदभाव और मनचलों की छेड़छाड़ के खिलाफ मुखर होती रही हैं, लेकिन संविधान की मूल भावना के साथ हुई छेड़छाड़ को रोकने के लिए उनका इस तरह आक्रोशित होना भारतीय परिप्रेक्ष्य में अभूतपूर्व है. उन्होंने जता दिया है कि पानी सर के ऊपर से गुजर चुका है और चुनावी जीत के मद में चूर, बड़बोली, मिथ्यावादी, निरंकुश और अधिनायकवादी सरकार के सामने वे आत्मसमर्पण नहीं करनेवाली हैं. राजनीतिक आरोपों और सत्तारूढ़ खेमे के दावों के विपरीत इन विरोध प्रदर्शनों की खास बात यह है कि महिलाओं की इस अप्रत्याशित जुटान के पीछे किसी संगठन या संस्था या समूह या दल का हाथ नहीं है. विरोध जताने के लिए स्थान या अवसर की परवाह भी नहीं की गई है. एक ओर जहां दिल्ली को नोएडा से जोड़ने वाले मुख्य हाईवे के एक हिस्से पर कब्जा जमाया गया, तो दूसरी तरफ पांडिचेरी विश्वविद्यालय की स्वर्णपदक विजेता रबीहा अब्दुर्रहीम और जादवपुर विश्वविद्यालय की देबास्मिता चौधरी ने कैम्पस में आयोजित दीक्षांत समारोहों के मंचों पर ही सीएए का कड़ा विरोध दर्शाया. दक्षिण भारतीय अभिनेत्री रीमा कलिंगल ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा- “धर्म के आधार पर हमारे शांतिपूर्ण राष्ट्र को मत बांटिए.”
महिलाओं की यह जागरूकता इस संदर्भ में भी उल्लेखनीय है कि हिंदू समाज में सदा से हावी जबर्दस्त पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण ने कथित महिला सशक्तीकरण के नाम पर चंद रेवड़ियां बांटने के अलावा कभी भी लड़कियों और महिलाओं के बारे में गहराई से सोचने की जहमत नहीं उठाई. इस्लाम में प्रदत्त औरतों के हुकूक की लाख दुहाई देने के बावजूद मुस्लिम महिलाएं कठमुल्लों की कठपुतलियां बना कर रख दी गईं. महिलाओं को हमेशा "भारतीय नारीत्व" की पवित्र आभा में लपेटे रखने का प्रयास किया गया. इस पसमंजर में वर्तमान विरोध प्रदर्शन हिंदू-मुस्लिम महिलाओं की छवियों का एक दिलेर और मर्मभेदी कोलाज पेश करते हैं, जिन्होंने लादी गई हिफाजत के पिंजरे को तोड़ दिया है और लोकतांत्रिक असंतोष के लबालब भरे तूफानी समंदर में छलांग लगा दी है. उनका बाहर निकला एक-एक कदम किसी भी जनविरोधी और महाशक्तिशाली सत्ता की चूलें हिला सकता है.
- विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

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