बुधवार, 28 मई 2008

अँगरेजी का अंडरवर्ल्ड

भारतीय भाषाओं की एक विराट दुनिया है। संविधान की आठवीं अनुसूची में २२ भाषाओं को मान्यता दी जा चुकी है लेकिन भारत में १००० से ज्यादा भाषाएं एवं बोलियाँ अस्तित्व में हैं।
शोषकों की भाषा अंगरेजी भारतीय भाषाओं को वहाँ ले जाकर मारती है जहाँ पानी न मिले। आप विश्वबैंक या अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की भाषा देखिये. किसी भी विकासशील देश को क़र्ज़ इस अंदाज में देते हैं जैसे दान दे रहे हों. हमारे समाचार-पत्र उस भाषा को ही छापते हैं जो इन दैत्यनुमा वित्तीय संस्थानों से उन्हें मुहैया कराई जाती है. क्रेडिट कार्ड कंपनियों की भाषा और शर्तें तो कोई वित्त-विशेषज्ञ ही समझ सकता है. इनकी भाषाई चालें साहूकारों को भी शर्मिन्दा करती हैं. साहूकार की तो बहुत क्रोध आने पर आप लाठी मार कर हत्या कर सकते थे, लेकिन क्रेडिट कार्ड के निजाम में तो आप सिर्फ आत्महत्या कर सकते हैं.



आँकड़े बताते हैं कि विश्व में हर वर्ष औसतन एक भाषा मृतप्राय हो जाती है। और जब कम्यूटर तकनीक का हमला अपने उफान पर है तब भारतीय भाषाओं का क्षरण तीव्रतर हो रहा है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि महानगरीय क्षेत्रों में जो कम्प्यूटर कार्यशालाएं चलती हैं उन्हें ज़िला, तहसील तथा गाँव स्तर तक लाया जाए। इन कार्यशालाओं के दौरान क्षेत्रीय भाषाओं में डेमो दिखाए जाएं और इन्हें संचालित करने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर ही स्वयंसेवक तैयार किए जाएं. साथ ही सस्ते में कम्प्यूटर मुहैया कराये जाएं और इनका प्रशिक्षण भी मुफ्त हो.

इस दिशा में व्यक्तिगत स्तर पर काम हो रहा है। मैंने पिछले दिनों बैंगलौर में हुई एक ऐसी ही कार्यशाला की रपट पढ़ी थी. यहाँ साइंस एज्यूकेशन' के नागार्जुन जी। ने बताया कि वह माइक्रोसोफ्ट जैसी विदेशी कंपनियों की मिल्कियत वाले फोंटों के मुकाबले वैकल्पिक, निःशुल्क तथा स्वतन्त्र आधार पर देवनागरी फॉण्ट विकसित कर रहे हैं. एम्. अरुण नमक सज्जन एक सम्पूर्ण मलयालम आधारित संचालन-प्रणाली विकसित करने में जुटे हैं; जो जीएनयू लिनक्स के वितरण पर काम करती है, इसे नॉपिक्स के नाम से जाना जाता है.

भारतीय फोंटों पर लगभग डेढ़ दशकों से काम चल रहा है। इनमें देवनागरी के अलावा कन्नड़, तमिल, मलयालम और तेलुगु भाषाओं के फॉण्ट शामिल हैं। लेकिन ये प्रयास व्यक्तिगत हैं और बेहद नाकाफी हैं. वैश्वीकरण के इस दौर में अफ्रीका और एशिया की भाषाओं को अंगरेजी नाना प्रकार के तकनीकी अवतार लेकर नेस्तनाबूद करने में जुटी है. ऐसे में भारतीय भाषाओं के फॉण्ट न तो वह विकसित होने देगी न ही भारत में किसी शोध को समर्थन देगी. यहाँ तक कि आज जर्मन और फ्रांसीसी भी अंगरेजी से भयाक्रांत है. जिन भाषाओं की मौखिक परम्परा है, लिपि नहीं है, उनका इस सदी के अंत तक नामोनिशान बच पाना मुश्किल है. अंगरेजी चाहती है कि पूरे विश्व में ५० से ज्यादा भाषाओं का अस्तित्व नज़र ही आना नहीं चाहिए.

भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में मूल समस्याओं और संकट को समझने के लिए अंगरेजी के अंडरवर्ल्ड को समझना जरूरी है। भारतीय भाषाओं के खलनायक वही हैं जो समाज के अन्य क्षेत्रों में होते हैं। समाज के दबंग, बाहुबली, आर्थिक संसाधनों पर कब्जा जमाये बैठे लोग ही भाषा का भविष्य तय करते हैं। इन्हें हम इलीट (संप्रभु) तबका कहते हैं. भाषाशास्त्री या भाषाओं से जुड़े अन्य लोग सिर्फ सुझाव दे सकते हैं. भाषाई नीति बनाने और उसे अमल में लाने की हैसियत इनकी नहीं होती. ऐसे में यह और महत्वपूर्ण हो जाता है कि वृहत्तर भारतीय समाज में भाषाओं की अवस्था पर हम 'क्रिटिकल पर्सपेक्टिव' रखें.

भारतीय भाषाओं का भविष्य उज्जवल बनाने के लिए मैं डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के फार्मूले पर सहमत हूँ। शिक्षा, अदालती कामकाज, विधानसभा और स्थानीय निकायों की भाषा क्षेत्रीय भाषा में हो तथा राष्ट्रीय स्तर का कामकाज हिन्दी में। लेकिन दुःख की बात है कि ऐसा आज़ादी के ६० वर्षों बाद भी मुमकिन नहीं हो सका है.

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (कांग्रेस) ने तमिलनाडु में हिन्दी चलाने की कोशिश की, उनके बाद कामराज ने भी, तो वहाँ अन्नादुरै हिन्दी के विरोध के दम पर द्रविड़ मुनेत्र कझगम ले आए। नतीजा ये है कि दक्षिण भारत में जो स्थान हिन्दी को मिलना था उस पर एक विदेशी भाषा अंगरेजी विराजमान है।

यह बात सही है कि आप भाषा किसी पर थोप नहीं सकते लेकिन राष्ट्रीय भावना के विकास के सहारे राष्ट्रीय भाषा का विचार धीरे-धीरे अपनी जगह ले सकता है। लेकिन विज्ञान और तकनीक की विचारधारा पर जब तक संप्रभु वर्ग का नियंत्रण बना रहेगा तब तक अंगरेजी को भारतीय भाषायें पदच्युत नहीं कर सकतीं।

शेष अगली पोस्ट में जारी ...

6 टिप्‍पणियां:

  1. कमोबेश दक्षिण जैसे हालात ही सारे देश के हैं. जैसे द्रमुक ने अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए हिन्दी का गला घोंटा वही काम हर राज्य मे (कुछ एक को छोड़कर) कोई ना कोई कर रहा है.
    आपके मतानुसार इलीट (संप्रभु) तबका है, मुझे लगता है इस तबके के साथ-साथ और भी कई है जो इस दिशा मे प्रयत्नशील है कि अंग्रेजी के अंडरवर्ल्ड मे सब घुल मिल कर अपना अस्तित्व खों दे.
    बहुत ही विचारोत्तेजक निबंध.
    अगले भाग के इंतजार मे.
    बालकिशन.

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  2. बढि़या लिखा है. केन्‍या में एक भाषा है गिकूयू. लगभग बंद हो गई थी उसमें बोलचाल. सोच-समझ वाले जुनूनी लोगों की कोशिशों से फिर उसमें थोड़ी जान आती दिख रही है. हमारे यहां ऐसा हो पाएगा?

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  3. अगर आप का जैसी भासा लिखने वाले कंट्री में बचएल , तो मेरे को नहीं लगता की ह्न्दी का उर्दू का कुछ होयेंगा,. पढ़के ठीक कया. विजे लोगना ऐसा अच्छा लिखना किदर से जाना.

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  4. कम्प्यूटर/इण्टरनेट भाषा का भविष्य हैं। हिन्दी जितना कम्प्यूटरफ्रेण्डली बनेगी, उतनी मजबूत होगी।

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  5. बहुत ही सटीक शीर्षक दिया है आपने।

    यह बात गांठ बांधने की है कि जिस दिन गांव-गांव में कम्प्यूटर पहुंच जायेगा उस दिन अंग्रेजी की कब्र खुद जायेगी। देसी भाषाओं के प्रति विभिन्न प्रकार की जागरूकता फैलाने की जरूरत है।

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  6. पहली बार आपका ब्लॉग देखा. अब मेरे रीडर में शामिल है. वैश्वीकरण और भाषा के मसले पर आज मैंने भी एक पोस्ट की है. मौका लगे तो देखियेगा.

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