'तमिल टाइम्स' में दो दिन पहले एक विज्ञापन छपा था। नहीं-नहीं मुझे तमिल पढ़ना नहीं आता, वह तो बगल में बैठे मेरे मित्र और तमिल के युवा कवि मदिअलगन सुब्बैयाह यह अखबार पढ़ते-पढ़ते अचानक जोर-जोर से हंसने लगे। मैंने पूछा कि अभी तक तो सकुशल थे अचानक यह क्या हो गया? क्या आलोक पुराणिक जी की कोई अगड़म-बगड़म पढ़ ली? वह बोले- 'यह बात नहीं है, एक विज्ञापन छपा है।'
उन्होंने विज्ञापन पढ़ कर सुनाया- 'ओरली पगुदियिल दिनमुम २५० किलोग्राम मावू विरापनैयागुम लेन विरापनैक्कू उल्ल्दु! नोडरबु कोलग: ०९८०.......'
मेरा पूरा शरीर सवाल बन गया, पूछा- 'अर्थात्?????????"
मदि ने बताया कि मुम्बई के वरली इलाके में कोई गली है जिसमें २५० किलोग्राम आटा की इडली रोजाना खप जाती है यानी एक दिन में बिकती है। यह आदमी गाँव जा रहा है और यह लेन यानी गली भाड़े पर देने के लिए इसने यह विज्ञापन दिया है.
हम दोनों यह सोचकर हैरान रह गए कि महानगर में कैसे-कैसे 'व्यौपार' चलते हैं।
इस प्रसंग से मुझे याद आया मुम्बई के ही मालाड इलाके का एक किस्सा। तब मैं मुम्बई नया-नया आया था. गर्मियों के दिन थे. एक सुबह हमारा अखबारवाला सूचित करने लगा कि वह तीन महीने के लिए गाँव जा रहा है इसलिए अब अखबार दूसरा आदमी देगा. कोई शिकायत हो तो उसी से कीजियेगा. हमने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि तीन माह के लिए उसने अपना धंधा उस आदमी को भाड़े पर दे दिया है.
पहली बार ज्ञान हुआ कि मुम्बई में लोग दूकान और मकान ही नहीं; धंधे भी किराए पर उठा कर चले जाते हैं... और वापस आने पर फिर से उसी धंधे में जुट जाते हैं।
गुरु, इन प्रसंगों से एक आइडिया आया है। हिन्दी ब्लॉग जगत में काफी गड़बड़ी कर चुका हूँ। क्यों न कुछ दिनों के लिए दण्डक अरण्य चला जाऊं और किसी ऋषि से गुफा भाड़े पर लेकर माह भर तपस्या करूँ? तब तक लोगों का गुस्सा भी ठंडा हो जायेगा.
तो ठीक है. मैं अपना ब्लॉग जहाँ है, जैसा है के आधार पर महीने भर के लिए भाड़े पर देना चाहता हूँ- 'नॉन येनदु 'ब्लॉग' उल्लदु उल्लपडीये माठ्ररंगल येदुमिललादु ओरु मादनिरकु वाडहैकु विड विरुम्बुगिरेन! नोडरबु कोलग: ०९८०.......मोबाइल नंबर।'
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चौबे जी, कोई मिल जाए तो मुझे भी बताना। मैं भी कुछ दिनों बाद छुट्टियों में जाना चाहता हूँ।
जवाब देंहटाएंGuru, nice post.
जवाब देंहटाएंवाह बढ़िया है। परन्तु यहाँ केवल किराये पर देने वाले मिलेंगे लेने वाले नहीं।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
बढि़या. अच्छा आइडिया है. कोई भाड़ोत्री मिल जाए जल्दी ही आपको.
जवाब देंहटाएं"ऐन आईडिया कैन चेंज योर....."
जवाब देंहटाएंसॉलिड आईडिया है सर...दे ही डालिए...आप रास्ता दिखा देंगे तो हम भी चल पड़ेंगे...:-)
'नॉन येनदु 'ब्लॉग' उल्लदु उल्लपडीये माठ्ररंगल येदुमिललादु ओरु मादनिरकु वाडहैकु विड विरुम्बुगिरेन!'
जवाब देंहटाएंये जबरदस्त विज्ञापन रहा !
मुम्बई मायानगरी
क्या नहीँ सिखाती !
- लावण्या
नल्ला वैले।
जवाब देंहटाएंवैसे यह मुम्बई तक ही सीमित नहीं है। दिल्ली में मेरी इस्त्री वाली ने अपना अड्डा अपनी बेटी को दहेज में दिया था।
कोई कमी नही है आइडिया की यहा. एक से एक आइडिया वाले मिल जायेंगे. वैसे ये अच्छा है
जवाब देंहटाएंஇ அம் ரெடி டு அச்செப்ட் யூர் ஒபிபிர். வ்தேரே டு காங்டச்ட்???
जवाब देंहटाएंकिराये की तो क्या बात करें. यहाँ तो दान में देना चाहते हैं तो लेवाल नहीं मिल रहे. शुभकामनायें. :)
जवाब देंहटाएंअब तक पधारे दस टिप्पणीकारों को साधु- संतवाद! दुःख की बात है कि भाड़े की कोई बात नहीं कर रहा!
जवाब देंहटाएंविचार अच्छे हैँ
जवाब देंहटाएंपीड़ा जायज है कोई भाडे की बात नही कर रहा :-)
जवाब देंहटाएंवाह क्या आईडिया है ....कोई मिला क्या .दर्द कहीं हद से ही न गुजर जाए :)
जवाब देंहटाएंअंग्रेजी ब्लॉगजगत के चक्कर मार आइये। वहां यह तमिलटाइम्स की विज्ञापनीय तकनीक बहुत चलती है। ये तो हिन्दी की चिरकुटई है कि हम ब्लॉग सीने से लगाये रहते हैं।
जवाब देंहटाएंनहीं तो ब्लॉग क्या है - करेंसी है - विनिमेय!
बंबई मंे बहुत कामन है साहब जी
जवाब देंहटाएंभाडे पर लेने के बाद कब्जा नहीं छोडते
कब्जा छुडाने में कब्ज हो जाती है मालिकमकान को
लेकिन पोसट बढिया है