(बुर्जुआ समाज एवं संस्कृति- १३)
इस लेखमाला में पिछले दिनों आपने पढ़ा था कि पूंजीवाद एक हाथ से देकर दूसरे से दुगुना लेता है। स्वाधीनता दी है, जीविका का निश्चित उपाय और सुरक्षा नहीं दी है. इससे जनता में अस्थिरता पैदा हुई है जो प्राचीनकाल में नहीं थी. अब आगे...
तब समाज की विषय व्यवस्था में सभी का स्थान निश्चित था। धनी-दरिद्र, ऊँच-नीच, मालिक-नौकर, ज़मींदार-दास, ब्राह्मण-शूद्र विषमता के आधार पर गठित होते हुए भी निर्दिष्ट कार्यों के लिए स्वीकृत थे और सम्बद्ध दायित्व पालन करते थे. इस समाज में निचले तबके के लोगों को दारुण दुःख, वंचना और लान्छ्ना सहनी होती थी लेकिन आधुनिक समाज के जैसा भय, उद्वेग एवं अस्थिरता नहीं थी. 'स्वर्गीय असंतोष' के साथ स्वर्ग के पीछे भागने की प्रेरणा भी नहीं थी, शूद्र को ब्राह्मण होने के लिए सात बार जन्म लेना होता था. (इस प्रसंग में मनु का वक्तव्य है-
शूद्रायाम ब्राह्मनाज्जातः श्रेयसा चेत प्रजायते,
अश्रेयान श्रेयासिम जातिम गच्छत्यासप्रमादयुगात।) मनु १०/६४.
धनोपार्जन कर ब्राह्मण या क्षत्रिय के समकक्ष होने की कल्पना भी किसी शूद्र ने नहीं की होगी।
प्रतियोगिता के अलावा भी एक महत्वपूर्ण कारण है क्रय-विक्रय सम्पर्क। प्राचीनकाल में सामाजिक सम्बन्ध प्रत्यक्ष थे. राजा-प्रजा, प्रभु-दास, ब्राह्मण-शूद्र सभी के परस्पर संबंधों में निश्चित अपेक्षाएं थीं.
बुर्जुआ समाज में परस्पर कोई निश्चित, विधिवत सम्पर्क नहीं है॥ माल का क्रय-विक्रय ही सम्बन्ध बनाते हैं। जनता जरूरत की चीजों के लिए उत्पादक पर निर्भर है, लेकिन उत्पादक से सामना नहीं होता. कई हाथों से गुज़रते हुए वह सामान उपभोक्ता के पास आता है. हम लोग अन्न के लिए किसान के पास नहीं जाते हैं और न ही वह हमारे पास आता है. इससे एक दूसरे पर निर्भरता का सम्पर्क स्वाधीन क्रेता-विक्रेता के आर्थिक लेन-देन में बदलता है. इसी लेन-देन पर बाज़ार का नियम चलता है. (कार्ल मार्क्स ने दास कैपिटल के प्रथम खंड में यह निष्कर्ष व्यक्त किया था: There is definite social relation between men, that assumes, in the eyes, the fantastic forms of a relation between things... PROGRESS PUBLISHERS, Moscow, 1965, page -72.)
इस लेन-देन के परदे में सामाजिक-निर्भरता की भावना मद्धिम हो जाती है। मोलभाव करके खरीदने और बेचने के साथ सामाजिक न्याय-अन्याय की प्रक्रिया जुड़ी है, यह सोच पैदा ही नहीं होता है. फिर भी यह सच है कि मुनाफ़ा, बाज़ार की अराजक अवस्था, श्रमजीवी और उपभोक्ताओं की दुर्गति, सभी सस्ते में खरीद कर मंहगे में बेचने से ही पैदा होती है.
सामाजिक सम्पर्क का क्रेता-विक्रेता सम्पर्क में बदलाव इस दौर पर आ पहुंचा है कि मनुष्य भी एक जिन्स होकर रह गया है। सामान्य मानव-धर्म के बदले सामग्री-धर्म अपनाते-अपनाते मानव-चरित्र के नए दिगंत प्रकट हुए हैं.
अगली पोस्ट में जारी...
'पहल' से साभार.
बहुत ही अच्छी जानकारी परोस रहे हैं आप। अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंप्रभाकर पांडे की दिलेरी का शुक्रिया जो उन्होंने ऐसे ख़तरनाक आलेख पर टिप्पणी की.
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