सोमवार, 21 दिसंबर 2009

दुनिया-ए-फ़ानी से बेलौस गुज़र गए नीरज कुमार

मैं सैनिकों के रानीखेत क्लब में पर्वतराज हिमालय की ओर मुंह किये नंदा देवी की मनोरम चोटी को अपलक निहार रहा था, जो मुझे मिस्र के किसी बच्चा पिरामिड की तरह लग रही थी. वह सोमवार की जोशीली सुबह थी. 'कबाड़खाना' वाले अशोक भाई खुद को फुर्ती से भरकर मित्रों के साथ थोड़ी ही दूर पर चहलकदमी कर रहे थे और लखनऊ वाले कामता प्रसाद बगल की कुर्सी पर बैठे दवाइयां खा रहे थे. इसी बीच बरगद उखड़ जाने का एसएमएस आया. लिखा था- नीरज कुमार कल शाम नहीं रहे. दिल का भीषण दौरा पड़ने से नीरज जी का निधन इतवार को हो गया था. यह भी एक संयोग ही था कि उनकी मौत की तारीख ६ दिसंबर थी और बाबरी मसजिद ढहाए जाने की बरसी पूरे देश में तारी थी. सन्देश पढ़ते ही मेरे भीतर कड़ाक की आवाज़ के साथ कुछ टूट गया.


मेरा लटका हुआ मुंह देखकर अशोक भाई ने पूछा भी कि क्या हुआ है, मैंने वह दुखद समाचार कह सुनाया. अशोक भाई ने याद किया- 'अच्छा, अच्छा! वही नीरज कुमार, जिनका जिक्र आप कल शाम कर रहे थे.' मैंने कहा 'हाँ' और एक सर्द आह मेरे मुंह से निकल गयी. अब इसे संयोग कहें कि कुछ और, जिस समय नीरज जी के प्राण मुंबई में निकल रहे थे, लगभग उसी समय मैं उनका एक शेर रानीखेत में अशोक भाई और उनके मित्रों को सुना रहा था. शेर था-

'मीना बाज़ार सा न मेरा रखरखाव था
फुटपाथ की दुकाँ थी बड़ा मोल-भाव था.'


यह शेर नीरज जी की ज़िंदगी पर सौ फ़ीसद खरा उतरता है. बहरहाल, बदहवाश होकर मैंने फ़ौरन वहीं से गोपाल शर्मा, सिब्बन बैजी और सैय्यद रियाज़ को मुंबई फोन लगाया. पूछा कि कुछ पता है कि क्या हुआ था. फोन आलोक भट्टाचार्य को भी लगाया लेकिन वह उस वक्त लगा नहीं. ये लोग एक समय के हमप्याला और हमनिवाला थे. मुंबई का एक दुखद पहलू यह भी है कि यह एक बार लोगों को अलग करती है तो सालों मिलना-जुलना नहीं हो पाता. सबके रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं. दसियों साल एक साथ करने वाले लोग काम की जगह बदल जाने पर यहाँ बीसियों साल तक नहीं मिल पाते. फिर नीरज जी के पास तो कोई काम भी नहीं था. वह वर्षों से बेरोज़गार थे.

यह समाचार मिलते ही ये लोग कुर्ला की तरफ भागे, जहां जरी-मरी इलाके की एक बैठी चाल में नीरज जी रहा करते थे. लेकिन तब तक सारा खेल ख़त्म हो चुका था. वह मुस्कुरा कर बात करने वाला पका हुआ तांबई चेहरा, वह गर्व से उठा हुआ चौड़ा माथा और उस माथे का गहरा बड़ा तिल, वह तंज करती मुहावरेदार हिन्दुस्तानी भाषा, वह हमेशा पुराने लगनेवाले पैंट-शर्ट में नई-नई सी लगने वाली रूह पता नहीं कहाँ रुखसत हो चुकी थी. मुझे गहरी उदासी ने घेर लिया था रानीखेत में. फिर दिन यंत्रवत चलता रहा. हलद्वानी लौटते समय पूरे रास्ते मेरी देह कार में थी और दिमाग में यादों का बगूला उठ रहा था.

वे मेरे अंडे से निकलने के दिन थे. कान्वे प्रिंटर्स का 'नया सिनेमा' साप्ताहिक वरली नाका की रेडीमनी टेरेस नामक इमारत से निकलता था. 'उर्वशी' के सम्पादक रह चुके आलोक सिसोदिया इस रंगीन और सचित्र साप्ताहिक के सम्पादक थे. मैं यहाँ उप-सम्पादक नियुक्त हुआ था. यह १९८९-९० का वर्ष था. नीरज जी से मेरी पहली मुलाक़ात और पहली भिड़ंत भी इसी दफ़्तर में हुई. दरअसल वह मेरे चतुर्वेदी होने का अपनी विशेष शैली में मज़ा लेने लगे और मैं आग-बबूला हो उठा. वह तो बहुत बाद में मुझे अहसास हुआ कि वह मुझे प्रगतिशीलता का पहला पाठ पढ़ा रहे थे. लेकिन गाँव से आये संस्कारी ब्राह्मण नवयुवक विजयशंकर को वह बेहद नागवार गुजरा और अत्यंत जूनियर होने के बावजूद उसने पर्याप्त उत्पात उनके साथ मचाया.

उसी समय एक ऐसी घटना घटी कि किसी लेख पर सम्पादक जी के साथ मैंने बहस फंसा ली और लगा कि नौकरी गयी. लेकिन नीरज जी ने मेरा हर तरह से साथ देकर मुझे बचा लिया और उनकी इस कार्रवाई से प्रभावित होकर उस दिन से मैं उनकी बातें ध्यान से सुनने लगा. वह जिस तरह से ईश्वर, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषा के ब्राह्मणत्व की धज्जियां उड़ाते थे, उसे सुन-सुन कर मैं दंग था. ऐसी क्रांतिकारी स्थापनाएं मैंने जीवन में पहली बार सुनी थीं. मैं गहरे रोमांटिसिज्म के नशे में गिरफ्तार हो गया और शीघ्र ही उनका फैन बन गया. फिर तो जल्द ही उन्होंने सीनियर-जूनियर का फर्क मिटा दिया और जहां भी जाते अपने साथ ले जाते. उन्हीं के साथ मैंने मुम्बई का वह 'अंडरवर्ल्ड' देखना शुरू किया जिसमें देसी दारू के अड्डे, हिजड़े, वेश्यालय, जुआ खाने, सटोरिये, चौपाटियाँ, मुम्बई रात की जगमगाती बांहों में, नंगी सड़कें, झोपड़पट्टियां और मुशायरे तक की बेपनाह दुनिया थी.

इसके बाद की दास्ताँ बयान करने के लिए एक उम्र भी कम है और कलेजा भी चाहिए. इसमें नीरज जी की तंगहाली, स्वाभिमान, मानसिक उलझनें, भावनात्मक टूटन, पारिवारिक बियाबान और बरजोरी के अनेक किस्से है. आखिरकार स्थायी बेरोज़गारी से आज़िज आकर उन्हें मुंबई त्याग कर रोजी की उम्मीद में पटना जाना पड़ा. वह कृष्ण होते तो लोग 'रणछोड़' नाम दे देते. लेकिन चमचमाती दुनिया के कामयाब साथी उन्हें कब का मुंहफट और शराबी करार देकर उनसे कन्नी काट चुके थे. अधिकाँश लोगों को तो पता भी नहीं था कि पिछले १० वर्षों से नीरज जी कहाँ हैं. इस हालत पर उनका ही एक शेर कितना मौजूं है-

'शाइस्ता यारों ने उसको पत्थर करके छोड़ दिया,
जंगल का इक शख्स शहर में इन्सां बनने आया था.'


इस दरम्यान नीरज जी साल-छः माह में मुंबई आते-जाते रहते थे. मुंबई उन्हें जबरदस्त तौर पर खींचती थी. दो-चार मुलाकातें इस बीच की मुझे याद हैं जो पहले जैसी ही आवारगी और गर्मजोशी और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक बहस और गर्मागर्मी और झगड़ों से भरी हुई थीं. पिछले वर्ष नीरज जी हमेशा के लिए अपनी प्यारी मुंबई आ गए थे. बेटी की शादी हो चुकी थी और बेटा पढ़ाई कर रहा था.

एक दिन हम मिले- मैं, सैयद रियाज़ और नीरज जी. मेरे घर पर ही बैठक हुई. माँ की लगातार बिगड़ती तबीयत और सायन अस्पताल में होने जा रहे ऑपरेशन को लेकर वह बहुत चिंतित थे. फिर भी उन्होंने कहा- 'ज़रा जी को सुकून और मुझे दुनिया से फुर्सत मिले तो आराम से बैठेंगे विजय... और ऐसे वक्त में जब दोस्तों के घर चाय की प्याली भी नसीब नहीं, तुम्हारा घर शराब के लिए भी खुला रहता है. जीते रहो! फिर आज तो गाना-बजाना भी नहीं हुआ'.

सुबह जल्द उठकर वह कुर्ला चले गए और हम सोते ही रह गए. मुझे याद आया कि नीरज जी की आवाज़ कितनी सुरीली और तरन्नुम कितना दिलकश था. जब वह मस्ती में होते तो अपना एक रोमांटिक शेर ऐसे दर्द और अवसाद भरे तरन्नुम में गुनगुनाते कि कलेजा मुंह को आता-

'अक्सर तुम्हें देखा है, तुम देख के हंसते हो
ज़रा अपना पता देना, किस बस्ती में बसते हो.'


छपने-छपाने की तरफ से वह किस कदर लापरवाह थे इसका एक सबूत यह है कि उनकी सारी गज़लें और नज्में न तो किसी किताब में मिलेंगी, न किसी दोस्त के पास और न ही उनके घरवालों के पास. उनकी शायरी में मुद्दों की गहरी समझदारी, पैनी राजनीतिक दृष्टि, महीन व्यंग्य, साम्प्रदायिकता विरोध और भविष्य में तीखे जनवादी संघर्ष का आशावादी दृष्टिकोण साफ़ नजर आता है. दरअसल वह दुष्यंत कुमार के बाद की पीढ़ी के चंद उम्दा शायरों में से एक थे. पेश हैं उनके चंद अश'आर-

'पुल क्या बना शहर से आफ़त ही आ गयी
इस पार का जो कुछ था उस पार हो गया.'

'बादल सहन पे छायें तो किसी गफ़लत में मत रहना
हवा का रुख बदलते ही घटा का रुख बदलता है.'

'यूं ही इधर-उधर न निशाने खता करो
मौसम फलों का आयेगा ढेले जमा करो.'

'कुछ शरीफों ने कल बुलाया है
आज कपड़े धुला के रखियेगा.'

'हमको पता यही था के सलमान का घर था
वो कह रहे हैं हमसे मुसलमान का घर था.'

'गुज़रो तो लगेंगी ये शरीफ़ों की बस्तियां
ठहरो तो लगे आबरू अब कैसे बचाएं.'

'आपसे हुई थी इल्म बेचने की बात
रह-रह के क्यों ईमान मेरा तोल रहे हैं.'

'रोज़ी तलाशने सभी शोहदे शहर गए
पनघट से छेड़छाड़ का मंजर गुज़र गया.'


नीरज जी के बारे में मेरे पास लिखने और कहने को बहुत अधिक है. तमाम ऐसे किस्से हैं जिनसे हमारी आवारगी और बदमिजाजी का गुमाँ होता है. कितनी ऐसी छेड़ें हैं जो यारों और अय्यारों के साथ चली आती थीं. लेकिन वह कहानी फिर सही...

हमारी आख़िरी बैठकबाज़ी यही कोई चार माह पहले हुई थी. उन्हें किसी ने पुराना मोबाइल दे रखा था जिसका बैलेंस ख़त्म होने के बाद करीब दो माह से बातचीत भी नहीं हो पा रही थी. सैयद रियाज़ से ही मैं पूछा करता था कि नीरज जी से मुलाक़ात हुई या नहीं. इधर कुछ दिनों से उनका अपने सबसे पुराने यार सैयद रियाज़ से भी कुछ ठीक नहीं चल रहा था. रियाज साहब ने मुझसे कहा था कि अब वह नीरज जी से कभी मिलना नहीं चाहेंगे. वजह वही दारू की टेबल पर हुए झगड़े की, दोस्ती की, स्वाभिमान की, वही पाक-साफ़ होने के अनुपात की. मैं जानता हूँ कि न मिलने की ऐसी कसमें जाने कितनी बार टूटी हैं. इस बार भी टूटतीं. लेकिन इस बार तो नीरज जी ने ही कोई मौक़ा नहीं दिया और दुनिया-ए-फ़ानी से चले गए. अकबर इलाहाबादी ने शायद नीरज जैसे कबीरों के बारे में ही कहा है-

'इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊंगा बेलौस
साया हूँ फ़क़त नक्श-ब-दीवार नहीं हूँ.'

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2009

एक नदी जो बना दी गयी अछूत

पिछले दिनों मैं हिन्दी समाचार एजेंसियों की एक रपट पढ़ रहा था. उसे पढ़कर झटका लगा. मनुष्यों का मनुष्यों को ही अछूत बना देना तो हम देखते-सुनते-पढ़ते आ रहे हैं लेकिन नदियों को अछूत बना देना! वह भी भारत जैसे देश में जहां पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ों यहाँ तक कि कण-कण में ईश्वर का वास होना बताया और माना जाता रहा है, माना जाता है! यह रपट उत्तराखंड से सम्बंधित थी

यों तो उत्तराखंड को देवभूमि माना जाता है और यह भी मान्यता है कि यहाँ के पर्वत, वन, नदियों, टीलों तक में देवता वास करते हैं. गंगा, यमुना जैसी सतत प्रवाहिनी नदियों का उद्गम भी इसी के ग्लेशियर क्षेत्र से हुआ है. इस क्षेत्र की अन्य नदियों को भी पवित्र माना गया है और यहाँ की लगभग सभी नदियों के साथ गंगा प्रत्यय जोड़ने की परम्परा रही है. लेकिन इसी देवभूमि में एक नदी ऐसी भी है जिसे अछूत माना गया है, और उसका पानी पीना तो दूर, पानी को छूना तक निषेध है!
यह नदी है टौंस. टौंस के बारे में मान्यता यह है कि पौराणिक काल में एक राक्षस का वध किये जाने पर उसका रक्त इस नदी में गिर गया था, जिससे यह दूषित हो गयी. यही वजह है कि इसे तमसा भी कहा जाता है.

उत्तरकाशी जनपद में दो नदियाँ रुपीन और सुपीन देवाक्यारा के भराड़सर नामक स्थान से निकलती हुई अलग-अलग दिशाओं में प्रवाहित होती हैं. रुपीन फते पट्टी के १४ गाँवों से गुजरती है जबकि पंचगाई, अडोर व भडासू पट्टियों के २८ गाँवों से जाती है. लेकिन इन गाँवों के लोग न तो इन नदियों का पानी पीते हैं और न ही इनसे सिंचाई की जाती है. नैटवाड़ में इन नदियों का संगम होता है और यहीं से इसे टौंस पुकारा जाता है.

लोकमान्यताओं के अनुसार रुपीन, सुपीन और टौंस नदियों का पानी छूना तक प्रतिबंधित किया गया है. वजह धार्मिक मान्यताएं भी हैं. कहते हैं कि त्रेता युग में दरथ हनोल के पास किरमिरी नामक राक्षस एक ताल में रहता था. उसके आतंक से स्थानीय जन बेहद परेशान थे. लोगों के आवाहन पर कश्मीर से महासू देवता यहाँ आये और किरमिरी को युद्ध के लिए ललकारा. भयंकर युद्ध के बाद महासू देव ने आराकोट के समीप सनेल नामक स्थान पर किरमिरी का वध कर दिया. उसका सर नैटवाड़ के पास स्थानीय न्यायदेवता शिव के गण पोखू महाराज के मंदिर के बगल में गिरा जबकि धड़ नदी के किनारे. इससे टौंस नदी के पानी में राक्षस का रक्त घुल गया. तभी से इस नदी को अपवित्र तथा तामसी गुण वाला माना गया है.

एक अन्य मान्यता के अनुसार द्वापर युग में नैटवाड़ के समीप देवरा गाँव में कौरवों व पांडवों के बीच हुए युद्ध के दौरान कौरवों ने भीम के पुत्र घटोत्कच का सिर काट कर इस नदी में फेंक दिया था. इसके चलते भी इस नदी को अछूत माना गया है. मान्यता है कि इस नदी का पानी तामसी होने के कारण शरीर में कई विकार उत्पन्न कर देता है यहाँ तक कि अगर कोई लगातार दस साल तक टौंस का पानी पी ले तो उसे कुष्ठ रोग हो जाएगा!
सामाजिक कार्यकर्त्ता मोहन रावत, सीवी बिजल्वाण, टीकाराम उनियाल और सूरत राणा कहते हैं कि नदी के बारे में उक्त मान्यता सदियों पुरानी है और पौराणिक आख्यानों पर आधारित है. वे कहते हैं कि हालांकि इस नदी के पानी के सम्बन्ध में किसी तरह का वैज्ञानिक शोध नहीं है लेकिन स्थानीय जनता की लोक परम्पराओं में यह मान्यता इस कदर रची बसी हुई है कि कोई भूलकर भी इसका उल्लंघन नहीं करता.

नोट: यह पूरी रपट एजेंसियों की है. इसे यहाँ प्रस्तुत करने के अलावा इसमें मेरा कोई योगदान नहीं है.

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009

रमन सिंह के साथ चित्र ही दिखा दें- कमला प्रसाद

हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में प्रोफेसर कमला प्रसाद ने महत्वपूर्ण कार्य किया है. पिछले कई वर्षों से वह प्रगतिशील 'वसुधा' का सम्पादन कर रहे हैं और वर्त्तमान में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव हैं. उन्होंने जाने कितने ही कवियों-लेखकों को पुष्पित-पल्लवित किया है. कमला प्रसाद जी की राष्ट्रीय स्तर पर सक्रियता देखते ही बनती है. खराब स्वास्थ्य के बावजूद संगठन के कार्यों के लिए उनका एक पैर घर में तो दूसरा ट्रेन में होता है. लेकिन पिछले दिनों 'वसुधा' और प्रलेस के दामन पर आरोपों के कुछ छीटें पड़े तो उनका दुखी होना स्वाभाविक था. उन्होंने बेहद संयत ढंग से फोन पर अपनी बात कुछ इस अंदाज़ में रखी-


पहली बात तो यह है कि जो राशि 'वसुधा' को पुरस्कारस्वरूप मिली थी वह फोर्ड फ़ाउंडेशन की नहीं थी. चूंकि 'वसुधा' प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका है इसलिए उसे इस तरह के आरोपों एवं विवादों से बचाने के लिए हमने एक पत्र के साथ समूची राशि चेक के जरिये वापस कर दी है. यह फैसला भी मेरा निजी फैसला नहीं, सम्पादक मंडल की बैठक में लिया गया फैसला था. दूसरे जो आरोप हैं वे कमला प्रसाद पर व्यक्तिगत रूप से नहीं हैं, प्रगतिशील लेखक संघ पर हैं. उन आरोपों पर संगठन चर्चा करेगा और जो भी फैसला होगा वह प्रेस को बता दिया जाएगा.

रही ज्ञानरंजन जी की बात, तो अगर वह कहते हैं कि मैंने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के साथ मंच साझा कर लिया है तो वह इसका सबूत प्रस्तुत करें. वह सुनी-सुनाई बातों पर आरोप लगाया करते हैं. वह मेरा रमन सिंह के साथ एक चित्र ही दिखा दें.

मेरा कहना है कि सामूहिक जीवन जनतंत्र की सबसे बड़ी ताकत होती है. समूह या सामूहिक जीवन को खंडित करना उचित बात नहीं है. जिसे कोई बात कहानी है उसे एक कार्यकर्ता की तरह बात करना चाहिए..विचारक की तरह नहीं..संगठन के बाहर के आदमी की तरह आरोप नहीं लगाना चाहिए. कमला प्रसाद अकेले प्रलेस नहीं चला रहे हैं, पूरा संगठन है. इसीलिये न तो कोई फैसला व्यक्तिगत कहा जा सकता और न ही आरोप व्यक्तिगत हो सकता है. इसीलिये मैं फिर कह रहा हूँ कि जो भी बातें प्रगतिशील लेखक संघ के बारे में पिछले दिनों सामने आयी हैं उन पर संगठन के अन्दर विचार किया जाएगा. इस सम्बन्ध में जल्द ही कार्यकारिणी की बैठक होने जा रही है. प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह और फोर्ड फाउंडेशन वाले विवाद पर मैं पहले ही विस्तृत प्रतिक्रिया दे चुका हूँ जो ब्लागों और समाचार पत्रों में छप चुकी है इसलिए उसे यहाँ दोहराने का अधिक अर्थ नहीं है. पिछले कुछ दशकों से मैं प्रलेस का कार्यकर्त्ता रहा हूँ और अब भी हूँ. जो जिम्मेदारियों दी जाती हैं उन्हें शक्ति भर निभाने का प्रयास करता हूँ. फिलहाल इतना ही...

ऊपर चित्र प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह का है जिसमें कमला प्रसाद (बाएँ), आलोचक भगवान सिंह (पुरस्कार लेते हुए) और अशोक वाजपेयी (दायें) नजर आ रहे हैं. यह चित्र 'हिंद युग्म' से साभार लिया गया है.

सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

मैंने म.प्र. प्रलेस इसलिए छोड़ा- ज्ञानरंजन

ज्ञानरंजन का नाम साहित्य जगत में बड़े आदर के साथ लिया जाता है. उनके सम्पादन में हाल-फिलहाल तक निकलनेवाली प्रतिष्ठित लघु-पत्रिका 'पहल' का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है. एक कथाकार के रूप में ज्ञान जी ने हिन्दी साहित्य को कई अनमोल कहानियां दी हैं. वह मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के वरिष्ठ और सम्मानित सदस्यों में शुमार रहे हैं. लेकिन पिछले दिनों जब उन्होंने अचानक इस लेखक संघ से नाता तोड़ने का निर्णय लिया तो हिन्दी जगत के लिखने-पढ़ने वालों को एक झटका लगा. सबके मन में एक ही प्रश्न था कि आखिर इतने बड़े निर्णय के पीछे क्या वजह रही होगी? यही प्रश्न मेरे मन में भी था, सो मैंने ज्ञान जी से बातचीत करने की सोची. इस पर ज्ञान जी ने जो कहा वह आपके सामने ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ-


"ये स्थितियां पिछले पांच-दस वर्षों से लगातार बनती चली आ रही थीं. प्रगतिशील लेखक संघ का सांस्कृतिक विघटन जारी है. मुझे तो यह लगता है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद जिस तरह की लूट-खसोट हर क्षेत्र में मची थी, उसी तरह का माहौल पिछले दिनों से प्रलेस में चल रहा है. लोगों को ऐसा लगता है कि अब हमारे सामने कोइ मॉडल बचा नहीं है इसलिए जहां से जितना मिले लूट-खसोट लो. कम्युनिस्ट पार्टियों के भारतीय राजनीति में हाशिये पर आने के बाद हमारे सांस्कृतिक मोर्चे के जो नेता हैं उनमें ये कैफियत पैदा हो गयी दिखती है.

पिछले वर्षों में जिस तरह वामपंथी गढ़ ढहे, दूसरी तरफ नव-पूंजीवाद, अमेरिकी दादागिरी और उपभोक्तावाद का शिकंजा जिस तरह से कसता गया है, उसके दबाव और आकर्षण में हमारा प्रगतिशील नेतृत्त्व प्रेमचंद की परम्परा कायम नहीं रख सका और एक विचारहीनता का परिदृश्य तैयार करता रहा.
आप देखिये कि प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष नामवर सिंह जसवंत सिंह से लेकर सुमित्रा महाजन जैसे फासिस्ट और दक्षिणपंथी विचारधारा वाले लोगों के साथ मंच साझा कर रहे हैं और इस बात पर ज़ोर देते हैं कि विचारधारा की अब कोई जरूरत नहीं बची. इस घालमेल से नए रचनाकारों को घातक संकेत और प्रेरणा मिलती रही है. संयोग देखिये कि प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने जो किया उसी के नक्श-ए-क़दम पर चलते हुए राष्ट्रीय महासचिव ने भी छत्तीसगढ़ के भाजपाई मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह के साथ मंच साझा कर लिया. इस आचरण और प्रवृत्ति का विस्तार होता जा रहा है...और संगठन के पदाधिकारी अपने आचरण को तर्कसंगत बताने का प्रयास कर रहे हैं.

भारतवर्ष में इन दिनों अनेक विदेशी एजेंसियां वित्तीय सहायता देकर अनेक संगठनों, पत्रिकाओं और व्यक्तियों की प्रतिबद्धता तथा सृजनात्मक शक्ति को, उनकी विचारशीलता को कुंद करने का प्रयास कर रही हैं. इस सन्दर्भ में फोर्ड फ़ाउंडेशन द्वारा संचालित एक पुरस्कार, जो 'कबीर चेतना' के नाम से पिछले दिनों सुर्खियों में आया है, मध्य प्रदेश प्रलेस की पत्रिका 'वसुधा' ने भी हस्तगत कर लिया. यह बात फोर्ड फ़ाउंडेशन की रपट में खुले आम छपी है. मेरे पास वह रपट है.
विदित हो कि प्रलेस ने दस वर्षों तक म.प्र. में फोर्ड फ़ाउंडेशन के कारनामों के खिलाफ लंबा संघर्ष किया था, प्रस्ताव पारित किये थे और समय-समय पर सुप्रसिद्ध 'कला का घर' भारत-भवन का बहिष्कार भी किया था. विचार कीजिये कि प्रेमचंद का प्रलेस अब कहाँ पहुंचा दिया गया है.

प्रलेस में लेखकों की रचनाओं पर गोष्ठियां होती थीं, नवोदित लेखकों को प्रोत्साहित किया जाता था, अब वह सब बंद है. जैसे कोई ज़मीन या मकान पर कब्ज़ा कर लेता है उसी तरह चंद लोगों ने म.प्र. प्रलेस पर कब्ज़ा कर लिया है, वह भी अपने हित साधने के लिए. जिस मिशन और संविधान के साथ प्रलेस शुरू हुआ था वे सारी चीज़ें धूमिल हो गयी हैं और सत्ता तथा धन के साथ जुड़ाव प्रबल हो गया है. म.प्र. प्रलेस में आतंरिक लोकतत्र के लिए कोई स्थान नहीं बचा है.

मैंने व्यक्तिगत स्तर पर कई बार प्रलेस की संगठन बैठकों में प्रयास किया कि चीज़ें पटरी पर आयें, अगर कोई गलत बात हो रही हो तो उसे चर्चा करके ठीक कर लिया जाए, लेकिन ऐसा भी संभव नहीं रह गया. यही वजह है कि मैं पिछले पांच वर्षों से उदासीन हो गया था और अंततः मुझे त्यागपत्र देने का अप्रिय निर्णय लेना पड़ा.

यह चिंता सिर्फ प्रलेस से जुड़े साहित्यकारों की ही नहीं बल्कि पूरे लेखक समुदाय की होनी चाहिए... क्योंकि आज सांस्कृतिक संगठनों में पतनोन्मुखता का बोलबाला होता जा रहा है."

ज्ञान जी ने यह खुलासा भी किया कि स्वास्थ्य कारणों से 'पहल' को इंटरनेट पर ले जाने का विचार उन्होंने त्याग दिया है.

बुधवार, 30 सितंबर 2009

कब समाप्त होगा शोक का यह हिमयुग!

शोक मन का दीमक है. तन को तो यह घुन की तरह खाता रहता है. तिस पर मृत्यु का शोक घातक है. शोकग्रस्त माँ कहीं की नहीं रह जाती. जिसका २० साल का बेटा घर लौटते समय एक दुर्दांत डम्पर की चपेट में कुचलकर पल भर में मारा जाए उस माँ की अवस्था का वर्णन करने के लिए शब्द कहाँ से लाये जाएँ! मैं अपने साले अभय की बात कर रहा हूँ और वह शोकग्रस्त माँ मेरी सास है.

जाहिर है शोक ने हमारे पूरे कुनबे को अपनी गिरफ्त में ले रखा है. अभय की मौत के बाद पहले की तरह ही इस बार भी बरसात हुई, ठण्ड भी पड़ेगी, गर्मी की ऋतु भी आयेगी.. रिश्तेदार आते-जाते रहेंगे पहले की तरह ही, पर संबंधों की वह लपक... वह तपाक से मिलना-जुलना कभी हो सकेगा क्या! हम खाना खाते हैं, पानी पीते हैं, एक दूसरे से बात करते है; लेकिन अब वह बात नहीं रही. हँसने में भी रुलाई घुसी रहती है. पिता यानी मेरे ससुर के देखने में धुंधलापन शामिल हो गया है. पिता की माँ दिन-रात आँचल में आंसू छिपाती रहती हैं. मेरी पत्नी अब कभी न बांधी जा सकने वाली राखी का शोक गीत गाती रहती है. हम लोग कुछ-कुछ चिड़चिडे भी हो चले हैं. बातों-बातों में कटु हो जाते हैं. हर सही-गलत पर क्रोधित हो उठते हैं. मेरा बेटा अबोध है, सात माह का. उसकी बाल-सुलभ हरकतें कभी मन को बल्लियों उछालती थीं, अब सिर्फ देखने की चीज रह गयी हैं. फिर भी वह अपने में ही जिए जा रहा है. उसकी उम्र में शोक का भान भला किसे होता है!

मरनेवाले की याद घर के हर कोने से टपकती है. कुर्सी, पलंग, सोफा, फर्श, चटाई, दरी...न जाने किन-किन वस्तुओं से उसका उठना-बैठना चिपका हुआ है. उसके खाने-पीने की आदतें, उसका मोबाइल फोन, उसकी मोटरसाइकल, उसकी कार... उसकी भविष्य की योजनायें...सब यहीं छूट गयी हैं. घर के सामने की कुचली हुई घास तक शोकग्रस्त दिखाई पड़ती है. बिजली का खम्भा कैसी चटक रोशनी देता था, अब उसमें लटका बल्ब मरियल सी रोशनी देता है जिसे पतंगे घेरे रहते हैं. गंगा में विसर्जित करने के बाद शेष रह गए मृतक के कपड़े हमने पहनने के लिए बाँट लिए हैं. अब वह कपड़ों की शक्ल में हमारी देह से चिपका रहता है. उसके पहने हुए कपड़े एक दिन हमारे पहनते-पहनते फट जायेंगे, फिर भी वह मन से चिपका रहेगा. देखते हैं कब तक?

दशहरा के दिन बेटे का मुंडन संस्कार था. जबलपुर में नर्मदा किनारे ग्वारी घाट हम पहुंचे. दसियों बार तो मैं ही अपने साले के साथ यहाँ उमंग में भरकर आ चुका था. और कुछ ही दिन पहले यहीं नर्मदा किनारे उसका अंतिम संस्कार करके शोकग्रस्त लौटा. नर्मदा का यह किनारा जीवन के गीत तथा मृत्यु के शोकगीत दोनों का आयोजन कर लेता है. मैंने मीलों फैले नर्मदा के पाट पर नजर डाली तो अनुभव हुआ कि माँ का दामन तो सबके लिए है, जो इसे चाहे जिस रूप में अंगीकार करे.
ग्वारी घाट के चबूतरों पर दो-चार और बच्चों का मुंडन हो रहा था. महिलायें मंगलगीत गा रही थी. तभी हमें शोक ने आ दबोचा. हम लोग मुंडन की औपचारिकता निभा रहे थे. गाना-वाना तो हममें से किसे था! बगल की महिलाओं को गाता देख मेरी पत्नी को अचानक अपने भाई की याद आ गयी. बहुत रोकने के बावजूद नर्मदा के घाट पर उसकी आँखों से एक और धारा बह निकली. न जाने शोक का यह हिमयुग हमारे जीवन से कब समाप्त होगा!

शनिवार, 16 मई 2009

चुनाव बाद एक कविता हुई है सुनियेगा

आज शाम एक कविता हुई है. कम्प्यूटर काम करता तो बहुत पहले आप ये कविता पढ़ चुके होते. बहरहाल कविता ये है-

हा हाहाहा हाहाः हाहाः
हा हाहाहा हाहाः हाहाः हा हाहाहा हाहाः हाहाः हा हाहाहा हाहाः हाहाः ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं
hahhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhaaaaaahhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhaaaahhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhaaaahhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhaaaahhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhaaaahhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhaaaahhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhaaaऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं hhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhaaahhhhhhhhhhhhhhhhhhaaaahhhhhhhhhhhhhhhaaaaaahaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa!!!!!!!!!!!! हा हाहाहा हाहाः हाहाः ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं.............. for 5 years.

शुक्रवार, 15 मई 2009

बाबा की यह कविता आज होने वाले फैसले की जान है

सच कहूं तो मैं लीडरों के के प्रति इतनी बे-नाकामी से घिरा था कि यह अद्भुत कविता याद ही नहीं आयी. कल एक चैनल तो सीधे हमारी ब्लॉग कम्युनिटी से बाबा की 'मंत्र' कविता के कुछ अच्छे लोगों द्वारा (मैं इरफ़ान के ब्लॉग से वहां गया था) गाए गए अंश सुना रहा था और बेशर्मी से उस गाने वाली टीम का क्रेडिट भी नहीं दिया गया. अब यहाँ पेश है बाबा की वो कविता जो दरअसल टिकेट पा लेने का सिनेरियो है. अब इस बहुत बड़े कवि की खासियत ये है कि यह कविता आज होने वाले फैसले की जान है. अब बाबा-

'स्वेत-स्याम-रतनार' अँखियाँ निहार के
सिंडकेटी प्रभुओं की पग धूर झार के
लौटे हैं दिल्ली से कल टिकेट मार के
खिले हैं दांत ज्यों दाने अनार के
आये दिन बहार के!

बन गया निजी काम-
दिलाएंगे और अन्न दान के, उधार के
टल गए संकट यूपी-बिहार के
लौटे टिकट मार के
आये दिन बहार के!

सपने दिखे कार के
गगन-बिहार के
सीखेंगे नखरे, समुन्दर पार के
लौटे टिकट मार के
आए दिन बहार के!

मैं समझता हूँ बाबा की इस कविता को चुनाव बाद के आरंभिक परिदृश्य तक ले जाया जा सकता है जो उनका प्रमुख ध्येय था. बकिया आप लोग समझदार हैं.

गुरुवार, 7 मई 2009

राहुल बाबा की कांफ्रेंस के बाद हंगामा क्यों बरपा है?

कल मैंने जो लिखा था उस पर ड्रामा और हंगामा आज (06/05/2009) देखा? एमजे अकबर जैसा सीनियर जर्नलिस्ट मेरी बात का हेडलाइंस टुडे में समर्थन कर रहा है. सीएनएनआईबीएन में राजदीप सरदेसाई ने यही कहा. प्रभु चावला जी ने यही कहा. सुधीन्द्र कुलकर्णी को तो आलोचना करना ही थी. लेकिन यह नायाब मौका किसने दिया?
कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता कपिल सिब्बल ने सफाई दी, करूणानिधि के पास गुलाम नबी आजाद को जाना पड़ा. सोनिया गांधी की रैली तमिलनाडु में रद्द कर दी गयी. राहुल गांधी की असमय प्रेस कांफ्रेंस ने क्या-क्या नहीं करवा दिया. चुनाव परिणाम आने के बाद राहुल की यही बातें एक परिपक्व राजनीतिज्ञ की सूझ मालूम होतीं. लेकिन चमचों का क्या कीजियेगा!
इस कार्यक्रम में यहाँ तक कहा गया कि राहुल गांधी कांग्रेस के भीतर अपनी अलग कांग्रेस चला रहे हैं. वीरप्पा मोइली प्रेस कांफ्रेंस में राहुल बाबा की बगल में बैठे सञ्चालन कर रहे थे. उन्होंने हेडलाइंस टुडे के एंकर को सैडिस्ट कहा, पूरी बहस को बकवास और पक्षपाती बताया तथा आगबबूला होते रहे. अब आगे-आगे देखिए होता है क्या.
मुझे खुशी है कि सबसे पहले मैंने 'कबाड़खाना' और 'आजाद लब' में इन सारी बातों को स्पष्ट तौर पर लिखा है.लेकिन कृपया इसका यह मतलब न निकाला जाए कि कोई मेरी पोस्ट पढ़कर अपनी राय कायम करता है. इसका मुझे कोई मुगालता नहीं है और न रहेगा.

बुधवार, 6 मई 2009

'राहुल बाबा' की प्रेस कांफ्रेंस

राहुल गांधी की इस समय प्रेस कांफ्रेंस सीरीज दरअसल कांग्रेस के चंद चापलूस नेताओं की वेवकूफी है. सरकार के पांच सालों के बीच इस तरह की कान्फ्रेंसें चला करती हैं. यह आगे हो सकती थी. उन्होंने चंद्रबाबू नायडू की तारीफ़ की, नितीश की शान में कसीदे काढ़े, जयललिता को महान बताया. ये सभी कांग्रेस के विरोधी लोग हैं और एनडीए का हिस्सा रहे हैं; अथवा हैं. चुनाव बाद गठबंधन की मजबूरी समझ में आती है लेकिन चुनाव के बीच इस तरह की बातों से यूपीए के सहयोगी माने जाने वाले लालू, पासवान, करूणानिधि, ममता बनर्जी और मुलायम सिंह छिटक नहीं जायेंगे?

जैसे मैंने भाजपा के 'भय हो' का शव परीक्षण डंके की चोट पर किया उसके बाद वह विज्ञापन बंद हो गया. उसी तरह राहुल गांधी और उनके अशुभचिंतकों को यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि बड़े से बड़े और बहुत भावनात्मक लगनेवाले मुद्दे पर वह चुनाव पूरा होने तक इस तरह की वकवास नहीं करेंगे. हालांकि अब बहुत देर हो चुकी है.

७ मई के मतदान में फंसी ८५ सीटों पर यूपीए ने अगर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो चुनाव बाद कांग्रेस को पता नहीं किसका-किसका दरवाज़ा खटखटाना पड़ेगा. राहुल गांधी ने यह काम चुनाव से पहले करके बहुत गलत संकेत दे दिया है.

देखने की बात यह भी है कि राहुल की इस असमय हुई महान प्रेस कांफ्रेंस के बाद अब यूपीए कितना बचेगा! राहुल ने कुल्हाड़ी पर पाँव दे मारा है. राहुल तुम सचमुच 'राहुल बाबा' ही हो.

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

अर्थशास्त्री भीमराव अम्बेडकर ने कहा था...

दलितों की अवस्था को सुधारने के लिए प्रयास तो गौतम बुद्ध के समय से ही शुरू हो गए थे. बुद्ध के बाद भारतीय समाज में कई संत और समाज सुधारक हुए हैं जिन्होंने दलितों की दीनदशा के लिए आंसू बहाए हैं लेकिन ज़मीनी कार्य पहली बार बाबासाहेब अम्बेडकर ने ही किया. उन्होंने यह क्रांतिकारी समझ दी कि दलितों को अपनी दशा खुद सुधारना होगी. किसी की दया पर उनकी हालत नहीं बदल सकती. इसलिए उन्हें शिक्षित होना पड़ेगा, संगठित होना पड़ेगा और नेतृत्व करना पड़ेगा. दलितों को संगठित करने के लिए रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया की रूपरेखा उन्होंने ही बनाई थी, यह बात और है कि पार्टी उनके महाप्रयाण के पश्चात ही अस्तित्व में आ सकी. ख़ैर..

भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार एवं भारतरत्न बाबासाहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की आज ११८वीं जयन्ती है (१४ अप्रैल २००९). समाज ने उन्हें 'दलितों का मसीहा' की उपाधि भी दी है. भारतीय समाज में स्त्रियों की अवस्था सुधारने के लिए उन्होंने कई क्रांतिकारी स्थापनाएं दीं हैं. कहते हैं कि कामकाजी महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश (Maternity Leave) का विचार डॉक्टर अम्बेडकर ही पहले पहल सामने लाये थे. डॉक्टर अम्बेडकर के योगदान को आम तौर पर सार रूप में हम सभी जानते हैं लेकिन आज मैं उनके एक और रूप से परिचित कराता हूँ. और वह रूप है उनके अर्थशास्त्री होने का.

पहले विश्वयुद्ध के बाद भारतीय मुद्रा विनिमय की व्यवस्था में आमूलचूल सुधार करने के उद्देश्य से सन् १९२४ में रॉयल कमीशन ऑफ़ इंडियन करेंसी एंड फायनांस की स्थापना लन्दन में की गयी थी. प्रख्यात अर्थशास्त्री ई. हिल्टन यंग की अध्यक्षता में यह आयोग १९२५ में भारत आया. इसमें आरएन मुखर्जी, नॉरकोट वारेन, आरए मन्ट, एमबी दादाभाय, जेसी कोयाजी और डब्ल्यू ई. प्रेस्टन जैसे विद्वानों की मंडली इस आयोग की सदस्य थी. भारतीय मुद्रा विनिमय की व्यवस्था में सुधार के अंगों को चिह्नित करने के लिए इस आयोग ने ९ प्रश्नों की एक सूची तैयार की और सम्पूर्ण भारत की अवस्था के मद्देनजर विचार-विमर्श करने लगे.

इसी सिलसिले में १५ दिसम्बर सन् १९२५ को डॉक्टर अम्बेडकर ने इस आयोग के सामने पूरी प्रश्नावली को लेकर अपने बिन्दुवार और आँख खोल देने वाले स्पष्ट विचार रखे. इस प्रश्नावली का चौथा प्रश्नसमूह था- 'निश्चित की गयी विनिमय दर पर रुपये को दीर्घकाल तक स्थिर रखने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए? विश्वयुद्ध के पहले से चली आ रही सुवर्ण विनिमय प्रणाली (Gold Exchange Standard System) इसी रूप में आगे चलानी चाहिए या इसमें कुछ फेरबदल किए जाएँ? स्वर्ण भण्डार का स्वरूप क्या होना चाहिए? यह भण्डार कितना होना चाहिए तथा कहाँ रखा जाना चाहिए?'

प्रश्न क्रमांक ४ के उत्तर में डॉक्टर अम्बेडकर ने आयोग को बिन्दुवार समझाया था कि स्वर्ण विनिमय प्रणाली जनता की भलाई में किस प्रकार बाधक है, यह प्रणाली असुरक्षित क्यों है, और कैसे अस्थिर है. उन्होंने यह भी समझाया कि इस विनिमय प्रणाली के तहत सरकार को मिली नोट छापने की खुली छूट जनता के लिए किस तरह नुकसानदायक है. डॉक्टर अम्बेडकर की आयोग के साथ चली यह प्रश्नोत्तरी मिनिट्स ऑफ़ इवीडेन्स में दर्ज़ है.

मिनिट्स में दर्ज़ बयान के छठवे बिंदु में आम्बेडकर ने तत्कालीन समाज व्यवस्था, अर्थव्यवस्था की औद्योगिक एवं व्यापारिक परिस्थिति, प्राकृतिक आपदा, जनता की सहूलियत, लोगों के स्वभाव और सम्पूर्ण जनता का हित जैसे महत्वपूर्ण पक्षों को ध्यान में रखते हुए उपाय सुझाए थे. जैसे कि उन्होंने कहा था कि टकसाल में उचित मूल्य वाली स्वर्ण मुद्राएँ ही ढाली जाएँ. इसके अलावा इन स्वर्ण मुद्राओं तथा प्रचलित रुपये का परस्पर विनिमय मूल्य पक्का किया जाए. उन्होंने यह सुझाव भी दिया था कि प्रचलित रुपया सोने के सिक्के में परिवर्त्तनीय नहीं होना चाहिए, इसी तरह सोने का सिक्का भी प्रचलित रुपये के स्वरूप में परिवर्त्तनीय नहीं होना चाहिए. होना यह चाहिए कि दोनों का परस्पर मूल्य निश्चित करके पूर्ण रूप से दोनों को नियमानुसार चलन में लाया जाना चाहिए.

डॉक्टर आंबेडकर जानते थे कि भारतीय जनता की भलाई के लिए रुपये की कीमत स्थिर रखी जानी चाहिए. लेकिन रुपये की यह कीमत सोने की कीमत से स्थिर न रखते हुए सोने की क्रय शक्ति के मुकाबले स्थिर रखी जानी चाहिए. इसके साथ-साथ यह कीमत भारत में उपलब्ध वस्तुओं के मुकाबले स्थिर रखी जानी चाहिए ताकि बढ़ती हुई महंगाई की मार गरीब भारतीय जनता को बड़े पैमाने पर न झेलनी पड़े. एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने आयोग के सामने कहा था कि रुपये की अस्थिर दर के कारण वस्तुओं की कीमतें तेजी से बढ़ती हैं लेकिन उतनी ही तेजी से मजदूरी अथवा वेतन नहीं बढ़ता है. इससे जनता का नुकसान होता है और जमाखोरों का फ़ायदा.

रॉयल कमीशन ऑफ़ इंडियन करेंसी एंड फायनांस के सामने दिए गए डॉक्टर अम्बेडकर के तर्कों को पढ़कर कहा जा सकता है कि भारत के आर्थिक इतिहास का वह एक महत्वपूर्ण पन्ना है.

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

काला धन कैसे वापस लायेंगे आडवाणी जी?

काला धन छिपाने के धरती पर जो अन्य स्वर्ग हैं- जैसे मलयेशिया, फिलीपीन्स, उरुग्वे, कोस्टारिका, सिंगापुर, स्विट्जरलैंड, बहामा, बरमुडा, ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड और केमैन आइलैंड आदि- इनके नाम तो सब बता देंगे, लेकिन यहाँ कितने भारतीयों का कितना काला धन छिपा है, और इन भारतीयों में कितने कांग्रेसी हैं, कितने भाजपाई, कितने हिन्दू, कितने मुसलमान, कितने सिख, कितने ईसाई और इस मामले में ये सब हैं कितने बड़े मौसेरे भाई, यह कौन बताएगा?

ताजा हल्ला के अनुसार भारतीयों के १४५६ अरब डॉलर नकद रूप में स्विस बैंकों में रखे हुए हैं. यह सफ़ेद नहीं काला धन है. एक आँकड़ा और है- अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने देश की अर्थव्यवस्था में थोड़ी जान फूंकने के लिए जो ताज़ा स्टिम्युलस पैकेज मंजूर करवाया है वह राशि है ८३० अरब डॉलर. इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ स्विस बैंकों में जमा भारतीयों का काला धन अमेरिकी स्टिम्युलस पैकेज से ६२५ अरब डॉलर अधिक है. रेखांकित करने वाली बात यह है कि यह मात्र स्विस बैंक में जमा काला धन है. भारतीयों के लिए मॉरीशस तो काला धन गलाने और कर चोरी का स्वर्ग है. वहां का पिटारा खुले तो क्या हाल हो!

अगस्त 1982 में भारत और मॉरीशस के साथ एक कर संधि हुई थी जिसको 'डबल टैक्सेशन एवोइडेन्स ट्रीटी' कहा जाता है. भारत ने इस संधि के तहत मॉरीशस निवासियों को भारत में शेयर की खरीद बिक्री पर हुई कमाई पर टैक्स न लेने का वचन दिया था. इसी तरह की छूट मॉरीशस ने भी दी.. भारतीय निवेशक राउंड ट्रिपिंग करते हैं. इसके तहत निवेशक विदेश में जाकर मॉरीशस के रास्ते धन वापस भारत ले आते हैं.

ऑर्गनाइजेशन ऑफ इकोनामिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) ने काले धन की निकासी में सहयोग न करने वाले देशों की काली सूची जारी की है और अनुमान व्यक्त किया है कि काले धन की सैरगाह बने देशों में १७०० अरब डॉलर से ११५०० अरब डॉलर मूल्य के दायरे में परिसंपत्तियाँ जमा हैं. यहाँ आप गणित लगा लीजिये कि यह काला धन 'जी-२०' नेताओं द्वारा वैश्विक अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए प्रस्तावित की जाने वाली राशि के मुकाबले दस गुना से भी अधिक है.

चुनाव प्रचार में भाजपा काला धन वापस लाने का कनकौव्वा उड़ा रही है. जबकि भाजपा अच्छी तरह जानती है कि विदेशों में जमा काला धन यज्ञ-हवन करके वापस नहीं लाया जा सकता है. हाँ, धर्मगुरुओं के आशीर्वाद से धन जमा करने वालों का पता अवश्य लगाया जा सकता है. काला धन विदेश में रखने वाले भी उन्हीं के चेले होते हैं और आशीर्वाद लेकर चुनाव जीतने वाले भी. आडवाणी जी ने अभी कहा भी था कि वह साधु-संतों और धर्मगुरुओं से मार्गदर्शन लेते रहेंगे. कुछ वर्ष पहले धर्मगुरुओं के मार्गदर्शन में 'काले' को 'सफेद' बनाया जा रहा था जिसका स्टिंग ओपरेशन हुआ था, पता नहीं लोग उसे क्यों भूल गए? उसका कोई नामलेवा नहीं! बाबा रामदेव भी चुनाव के समय वह मामला नहीं उठाते जबकि 'राष्ट्र का जिम्मेदार नागरिक' होने के नाते काला धन वाले मुद्दे पर उन्होंने कांग्रेस की कम घेराबंदी नहीं कर रखी है.

स्विस बैंकों का तो हाल यह है कि वहां खातादार का नाम पता होता ही नहीं, एक कोड नंबर होता है. यह कोड नंबर खातादार की धर्मपत्नी और धर्मबच्चों तक को वे नहीं बताते. आपका तलाक हो जाने अथवा वसीयत जैसे कानूनी मामले में भी ये बैंक आपके खाते की गोपनीयता भंग नहीं करते. और नाम खुल जाने के भय से खातादार भी भला क्यों किसी को बताएगा. इतना जरूर होता है कि खातादार की मौत के बाद अगर जमा राशि पर ७ से १० वर्ष के बीच किसी ने दावा नहीं किया तो वह पूरी राशि बैंक की हो जाती है. क्या पता कुछ पूज्य महात्मा अपनी नश्वर किन्तु पार्थिव देह का परित्याग करने से पूर्व अपने बीवी-बच्चों को वह कोड नंबर बता भी जाते होंगे!

स्विट्ज़रलैंड में दुनिया भर का काला धन छिपाने के कारोबार में एक-दो नहीं पूरे ४०० बैंक लगे हुए हैं. इनमें से करीब ४० शीर्ष बैंक बेनामी खाता खोलने की सुविधा देते हैं. यूबीएस और एलटीजी ऐसे ही बाहुबली स्विस बैंक हैं. खाता खोलने के लिए आप एक पत्र भेज दें, बस हो गया काम. बेनामी खाता खुलवाने के लिए सिर्फ एक बार आपको व्यक्तिगत रूप से बैंक में उपस्थित होना पड़ता है. फिर आप चाहें तो खाता ऑनलाइन संचालित करें या फ़ोन पर आदेश देकर. आपके खाते की गोपनीयता कायम रखने के लिए स्विस सरकार ने ऐसे नियम बनाए हैं कि अगर किसी बैंक अधिकारी या कर्मचारी ने राज खोला तो उसे सश्रम कारावास दिया जा सकता है. स्विस बैंकों के लिए यह कोई गुनाह ही नहीं है कि खातादार ने अपने देश में कर चोरी करके पैसा उनके यहाँ जमा किया है. स्विस कानून में आपके लिए कमाई और संपत्ति का ब्यौरा देने की भी कोई बाध्यता नहीं है.

सन् १९३४ के बाद से बैंकिंग गोपनीयता का कानून स्विस सरकार ने दीवानी से बदलकर फौज़दारी कर दिया था. इसके तहत हथियारों की अवैध बिक्री और नशीली दवाओं की तस्करी के जरिए हुई कमाई के मामलों में गोपनीयता के नियम थोड़े शिथिल किये गए थे. लेकिन सवाल यह है कि किस मुद्रा में लिखा होता है कि वह किस ढंग से कमाई गयी है. करोड़ों-अरबों के भारतीय रक्षा सौदों तथा उनमें वसूला गया कमीशन किस रास्ते से कहाँ पहुंचा, कोई इसका माई-बाप आज तक पता चला है क्या? क्वात्रोची का ही कोई क्या उखाड़ पाया?

विदेशों से काला धन वापस लाने की एक सूरत हो सकती है. जिस तरह कुछ वर्ष पहले 'ब्लैक' को 'व्हाइट' करने के लिए केंद्र सरकार ने देश में एमनेस्टी स्कीम चलायी थी उसी तरह काला धन वापस लाने वालों के लिए एमनेस्टी स्कीम चलाये और उनकी पहचान स्विस बैंकों की ही तरह गुप्त रखे. तब संभव है कि कुछ धर्मात्मा भारतीय जीव भारत के भूखों-नंगों पर तरस खाकर अपना धन यहाँ लगा दें. गणित लगाइए कि अगर एक प्रतिशत काला धन भी लौट आया तो वह कितने खरब होगा?

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

क्यों है ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयाँ और?

किसी ने आपसे ये कहा है क्या कि रोग़न किया कीजिये? ये तो शौक की बात है कि आप रोग़न करेंगे या सिर्फ रंग भरके रह जायेंगे... या रंग-रोग़न कोई रोग है?

लोग कहते आये हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और. ये तस्लीम भी किया गया है.
लेकिन ग़ालिब ख़ुद यह क्यों कहता है कि उसका है अंदाज़-ए-बयाँ और. ..और दीगर क्यों तसलीम करते हैं.

दरअसल ग़ालिब को समझ और समझा पाना वैसे ही कठिन है जैसे कि कबीर को समझ और समझा पाना. दोनों बड़े कवि हैं. दुनियावी मुहावरों में बात की जाये तो महाकवि. मुझे चेतना के स्तर पर यह समझ में नहीं आता कि कवि और महाकवि क्या होता है. बात कहने की होती है कि कोई किसी फ़िक्र को किस अंदाज़ में कितने कमाल से कह पाता है... और अगर कहने का कमाल न हो तो फ़िक्र कितना टटका और टोटका होती है. बस.

चलिए देखते हैं कि ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयाँ और किस तरह और क्योंकर है.

ग़ालिब से पहले ये अंदाज़ नहीं था किसी के पास; ख़ुदा-ए-सुख़न मीर के पास भी नहीं कि वह अमल को दर रदद्-ए-अमल की तरह निभा सकता. मीर बड़ी से बड़ी बात सहल अंदाज़ में कह सकता था लेकिन ग़ालिब शेर में जीवन का काम्प्लेक्स लाया. उसने यह तरीका अपनाया कि जो रद्द-ए-अमल है दरअसल अमल हो जाए. ग़ालिब ने चीज़ों को जटिल होते हुए देखा.

आप ग़ालिब के चंद अश'आर देखिएगा. उसका एक मशहूर शेर है-

ये लाश बेकफ़न असद-ए-ख़स्ता जाँ की है
हक मगफिरत करे अज़ब आज़ाद मर्द था

और शेर सुनिए-

रंज से खूगर हुआ इंशां तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गयीं

फिर एक और शेर-

उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक
वह समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

आशिक हूँ प माशूक फरेबी है मिरा काम
मजनूं को बुरा कहती है लैला मिरे आगे

गिनाने को तो बहुत शेर हैं गालिब के, जो उसके अंदाज़-ए-बयाँ की तारीख़ खुद लिखते हैं. लेकिन आप सब शोहरा को एक और सवाल में गाफ़िल किए जाता हूँ कि ग़ालिब का यह शेर पढ़िए और बताइये कि किस तारीखी शायर ने ये ख़याल अपने बेहद मक़बूल शेर में इस्तेमाल किया है. गालिब का शेर ये रहा-

खूँ होके जिगर आँख से टपका नहीं अय मर्ग
रहने दे मुझे याँ कि अभी काम बहुत है.

आखिर में इस नाचीज़ की एक बात-

आप मुझसे ज़ियादा पढ़े-लिक्खे अफ़राद हैं.
और यह बेवजह किया गया मज़ाक नहीं है.

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

चुनाव प्रचार में साहित्य की रेड़ लगाई!

संसद में शेर-ओ-शायरी जगह पाती थी तो अख़बार वाले (अब टीवी चैनल वाले भी) उसका बड़ा शोर करते थे कि फलां मंत्री ने अपने भाषण के दौरान यह शेर पढ़ा, ढिकां कविता की लाइनें पढ़ीं वगैरह-वगैरह. लेकिन अब साहित्य चुनाव प्रचार में भी जगह पा रहा है. यह हम जैसे पढ़ने-लिखने से थोड़ा-बहुत वास्ता रखने वालों के लिए सुकून की बात है. 'आज तक' में प्रभु चावला और उनके एक एंकर अजय कुमार के साथ अमर सिंह कुछ फिल्मी और कुछ इल्मी शेर कहते-सुनते देखे गए. लेकिन मैंने यह पोस्ट एक अन्य कार्यक्रम की वजह से लिखी है

विदेश में जमा काला धन को लेकर एनडीटीवी इंडिया में ५ अप्रैल की शाम एंकर अभिज्ञान और सिकता के साथ एक बहस चल रही थी. बाबा रामदेव, कपिल सिब्बल, रविशंकर प्रसाद, शिवानन्द तिवारी भाग ले रहे थे. उस बहस में मैं फिलहाल जाना नहीं चाहूंगा. लेकिन जिस एक बात ने मेरा ध्यान खींचा वह थी जेडीयू के वरिष्ठ नेता शिवानन्द तिवारी के मुखारविंद से मुंशी प्रेमचंद की कहानी का उल्लेख किया जाना.

जेडीयू के तिवारी जी यूपीए सरकार एवं गठबंधन पर हमला करते हुए कह रहे थे कि भ्रष्टाचार आज से नहीं है, समाज में इसकी जड़ें गहरी हैं और प्रेमचंद ने 'नमक का दारोगा' कहानी में इसी भ्रष्टाचार का जिक्र किया था. वह कहानी उनके अनुसार सन् १९३६ में लिखी गयी थी. एक दूसरा हवाला उन्होंने महात्मा फुले के लेखन का दिया. लेकिन वह महात्मा फुले के भ्रष्टाचार संबन्धी किसी लेख का कोई उद्धरण नहीं दे सके. हालाँकि उन्होंने यह अवश्य कहा कि फुले १८वीं शताब्दी में हुए थे.

मैं तिवारी जी का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ. जेपी आन्दोलन में लालू यादव के वरिष्ठ नेता रहे डॉक्टर शिवानन्द के मुंह से प्रेमचंद का नाम सुनकर अमर सिंह जैसा हल्कापन नहीं लगता. लेकिन मैं विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि महात्मा ज्योतिबा फुले १८वीं नहीं १९वीं शताब्दी में पैदा हुए थे. उनका जन्म महाराष्ट्र के सातारा जिले में ११ अप्रैल १८२७ को हुआ था. सन् १८२७ का अर्थ १८वीं शताब्दी नहीं होता जैसा कि सन् २००९ का अर्थ किसी भी गणित से २०वीं शताब्दी नहीं हो सकता.

दूसरी बात यह है कि प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' सन् १९३६ में लिखी गयी कहानी नहीं है. उर्दू की 'प्रेम पचीसी' नामक पत्रिका में यह सन् १९१४ के पूर्व ही छप चुकी थी. इससे साबित होता है कि डॉक्टर शिवानन्द तिवारी ने मुंशी प्रेमचंद और महात्मा फुले का भी अपनी पार्टी के लिए किस तरह इस्तेमाल कर लिया!

जय हो! और हो सके तो इस तरह के तथ्यों से भय भी हो!! सच्चे पत्रकार और नेता अपनी बात कहने से पहले यों ही नहीं ख़ाक छाना करते!

फिर भी आज के दौर में साहित्य को किसी बहाने हमारे देश के 'आम आदमी' के सामने लाने का धन्यवाद!

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो

हाँ, तो पिछली पोस्ट में जो शेर मैंने आपको पढ़वाया था वह शेर कहा था जगतमोहन लाल रवां साहब ने.

मैं कह रहा था कि यह शेर दो दिन पहले सैयद रियाज़ रहीम साहब के साथ बातचीत के दौरान मेरे सामने आया. मैंने यह मिसरा तो बहुत सुन रखा है- 'ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो.' मक़बूलियत ऐसी कि यह लोगों की ज़बान पर है और इसका इस्तेमाल विज्ञापन तक में हुआ है. लेकिन 'क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो' वाला मिसरा मैंने पहली बार सुना. (कई अच्छी बातें ज़िन्दगी में पहली बार ही होती हैं:))

बात आगे बढ़ी तो रियाज़ साहब ने इस शेर के ताल्लुक से जो कहा वह आपको भी सुनाता हूँ- 'इस शेर का नाम लिए बगैर उर्दू शायर की तारीख नामुकम्मल है क्योंकि यह शेर आमद (प्रवाह) का शेर है. शायरी के ताल्लुक से उर्दू में आमद और आवर्द- दो बातें कही जाती हैं. आवर्द की शायरी में फ़िक्र तो हो सकती है लेकिन ज़रूरी नहीं कि वह शायरी दिलों को छू जाए. जहां तक आमद की शायरी है तो वह दिलों को तो छूती ही है; इसके साथ-साथ सोचने के लिए नए रास्ते भी पैदा करती है.'

अब फ़ैसला आप कीजिए कि रवां साहब के इस शेर के ताल्लुक से रियाज़ साहब जो फ़रमा रहे थे वह दुरुस्त है या नहीं. मुझे तो एकदम दुरुस्त लगा जी!

रवां साहब के चंद और अश'आर पेश-ए-खिदमत हैं-

हिरास-ओ-हवस-ए-हयात-ए-फ़ानी न गयी
इस दिल से उम्मीद-ए-कामरानी न गयी

है संग-ए-मज़ार पर तेरा नाम रवां
मर कर भी उम्मीद-ए-ज़िंदगानी न गयी

पाबन्दि-ए-ज़ौक, अहल-ए-दिल क्या मा'नी
दिलचस्पि-ए-जिंस-ए-मुज़महल क्या मा'नी

ऐ नाज़िम-ए-कायनात कुछ तो बतला
आखिर ये तिलिस्म-ए-आब-ओ-गुल क्या मा'नी


धन्यवाद!

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो

आपको आज एक शेर सुनाता हूँ शेर अर्ज़ है-

क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
खूब गुज़रेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो

दोस्तो, इस शेर के बारे में बातचीत अगले दौर में....

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

एटीएम ने अप्रैल फूल बना दिया!

बड़ा शोर था कि एक अप्रैल २००९ से नकद राशि निकालने के लिए किसी भी बैंक का एटीएम अपना हो जाएगा. कहीं-कहीं शायद हो भी गया हो लेकिन मुझे तो मेरे पड़ोसी एटीएम ने ही अप्रैल फूल बना दिया.

दरअसल मेरा बचत खाता एचडीएफसी बैंक में है. इसका एटीएम घर से दूर पड़ता है. लेकिन इस बात का कभी मलाल नहीं होने पाया. बगल का आईसीआईसीआई बैंक एटीएम हमेशा संकटमोचक बनकर काम आता रहा. एचडीएफसी बैंक में वेतन खाता होने के चलते यह सुविधा भी थी कि आईसीआईसीआई बैंक एटीएम से नकद निकालना निःशुल्क था. लेकिन शायद आईसीआईसीआई बैंक एटीएम को सुबह-सुबह ही पता चल गया था कि आज पहली अप्रैल है.

घर से निकलते समय पड़ोसी के घर रफ़ी साहब का यह गाना भी बज रहा था- 'अप्रैल फ़ूल बनाया तो उनको गुस्सा आया.' लेकिन कमबख्त उधर ध्यान नहीं गया तो नहीं ही गया. जल्दी में था सो हांफते, दम साधते आईसीआईसीआई बैंक के एटीएम में दाखिल हुआ. इस कियोस्क में ३ मशीनें हैं. लेकिन मेरी किस्मत देखिए कि वे अन्य ग्राहकों के लिए पैसे उगल रही थीं लेकिन मेरे एचडीएफसी एटीएम कार्ड से सौतन का रिश्ता निभाने लगीं. बार-बार प्रयास करने के बावजूद उनमें से धेला भी नहीं निकला. अब मैं सर पकड़ कर बैठ गया. शुल्क लगने के ज़माने में जो एटीएम मुझे निःशुल्क पैसे दिया करता था, आज बेमुरव्वत बना बैठा था.

अभी मैं उधेड़बुन में था कि बगल में खड़े एक ग्राहक का मोबाइल बज उठा. उसका रिंगटोन भी यही था- 'अप्रैल फ़ूल बनाया तो उनको गुस्सा आया.' बात भेजे में आ गयी. इंसान ही नहीं, कभी-कभी मशीनें भी अप्रैल फूल बना दिया करती हैं!

मंगलवार, 24 मार्च 2009

माँ के बारे में

बहुत बुरे हैं वे जिन्हें माँ के बारे में सब कुछ पता है
अच्छे लगते हैं वे जो माँ के बारे में ज्यादा नहीं जानते
बुरों से थोड़ा अच्छे हैं वे जो माँ के बारे में जानना चाहते हैं.

उनसे माँ के बारे में कोई बात तो की जा सकती है.


-विजयशंकर चतुर्वेदी

गुरुवार, 19 मार्च 2009

अबकी होली और समीर लाल की संगत

इस बार जबलपुर जाने का ख़ुमार अलग रहा. अबकी होली के रंगों में कुछ वायवीय, कुछ शरीरी और कुछ अलौकिक अनुभूतियाँ घुली हुई थीं. संकोच के साथ सूचना दिए देता हूँ कि मेरी पत्नी को और मुझे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है, वह भी जबलपुर में. संस्कारधानी के मार्बल सिटी अस्पताल में ४ मार्च की दोपहर २ बजकर ५० मिनट पर सामान्य ढंग से यह सब निबट गया (यह वाली जानकारी ज्योतिषी मित्रों के लिए है -):


ऊपर 'संकोच' की बात इसलिए की है कि इसे मेरे बड़े-बुजुर्ग भी पढ़ेंगे, और अपने बाल-बच्चों की अपने मुंह से चर्चा करना मुझे अटपटा लग रहा है. बात दरअसल यह है कि मैंने जबलपुरिया ब्लॉगर संजय तिवारी 'संजू' के ब्लॉग 'संदेशा' पर यह सब पढ़ लिया है, इसलिए अब बता देने में क्या हर्ज़ है?
तो इस बार की होली के उल्लास का यह प्रथम कारण था.

द्वितीय कारण यह रहा कि पुत्रजन्म के ठीक ६ दिन पहले मेरा प्रथम कविता-संग्रह 'पृथ्वी के लिए तो रुको' राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से न सिर्फ छपकर आया, बल्कि मेरे हाथ भी लग गया. प्रथम प्रकाशित कृति के स्पर्श का अहसास ही कुछ ऐसा था कि हाथ में लेते ही मन मस्त हो गया.. यह और बात है कि अभी इस संग्रह के बारे में मेरे अधिकाँश मित्रों को भी पता नहीं है, लेकिन यहाँ लिख देने से अब यह राज़ भी राज़ नहीं रह गया.

तृतीय कारण बनी एक घरेलू बारात. सतना जिले के बॉर्डर से पन्ना जिले के बॉर्डर बारात पहुँची. चाचा जी के ज्येष्ठ पुत्र की शादी थी. होली का मूड और माहौल बनाने में इस बारात ने बड़ी भूमिका निभाई. एक तो घर में नई बहू आई, दूजे कई वर्षों बाद मैं गाँव की किसी बारात में शामिल हुआ. बहरहाल इसका वर्णन किसी अन्य अवसर पर किया जाएगा.

लेकिन होली के मेरे उल्लास को फाइनल टच जबलपुर में ही भाई समीर लाल (उड़नतस्तरी) जी ने दिया. फ़ोन पर यह सूचना पाते ही कि मैं इस बार होलिका दहन जबलपुर में कर रहा हूँ, उन्होंने ब्लॉगर दोस्तों के मनस्तापों का दहन करने के लिए संस्कारधानी के होटल सत्य अशोक का एक सुइट बुक कराया और जबलपुर के ' ब्लॉगररत्न' जमा कर लिए. यह जमावट चूंकि 'शॉर्ट नोटिस' पर हुई थी इसलिए कुछ ब्लॉगर उपस्थित नहीं हो सके. इसका मुझे और समीर लाल जी को मलाल है. यह मलाल उन्होंने अगले दिसम्बर में दूर करने का वादा किया है. लेकिन इस जमावट में जो कुछ हुआ उसे 'परमानंद' से कम की संज्ञा नहीं दी जा सकती. इस झटपट मिलनोत्सव में 'नई दुनिया' के कार्टूनिस्ट डूबे जी, विवेक रंजन श्रीवास्तव, सुनील शुक्ल, बवाल हिन्दवी और संजय तिवारी ’संजू’ पधारे. इन सभी ब्लोगरों से ब्लॉग-पाठक पूर्व परिचित हैं.

विवेक रंजन श्रीवास्तव ने इस अवसर पर मुझे अपना द्वितीय किन्तु अद्वितीय व्यंग्य-संग्रह 'कौवा कान ले गया' भेंट कर अनुग्रहीत किया. 'राम भरोसे' उनका प्रथम व्यंग्य-संग्रह है. सुनील शुक्ल जी बिजली विभाग से भले ही सेवा-निवृत्त हो चुके हैं लेकिन उनका कंठ आज भी युवा और सक्रिय है. उन्होंने हेमंत कुमार का 'देखो वो चाँद छुपके करता है क्या इशारे' गाकर समाँ बाँध दिया. बवाल हिन्दवी की खासियत यह है कि वह गद्य को भी गाते हुए काव्य का लुत्फ़ देते हैं. उनकी आवाज़ किसी अज़ीज़ नाजां, इस्माइल आजाद या यूसुफ़ आजाद से कमतर नहीं है. आखिर को वह मशहूर कव्वाल लुकमान के वारिस ठहरे.

संजय तिवारी ’संजू’ ने लगभग पूरे समय हम लोगों की वीडियो फिल्म बनाई और फोटुएं खींचीं. उनका अहसानमंद हूँ कि अपने ब्लॉग में उन्होंने संभली हुई मुद्राओं वाली फोटुएं ही छापी हैं वरना तो कमरे का वातावरण पूर्ण होलीमय हो गया था... और डूबे जी के क्या कहने! हम लोग होली मना रहे थे और डूबे जी चुपके-चुपके अपना काम कर रहे थे. मेरा और समीर लाल जी का एक ऐसा आत्मीय स्केच उन्होंने कागज़ पर उतार दिया जिससे महफ़िल का राज़ लाख छिपाया जाए, छिप नहीं सकेगा. कहने की आवश्यकता नहीं कि डूबे जी अपने काम में सिद्धहस्त हैं.

समीर लाल जी ने अपनी ग़ज़ल सुनाई तो मौके का फायदा उठाते हुए मैंने भी काव्य पाठ कर दिया. मेरा आग्रह है कि इस जमावट की विस्तृत रपट के लिए आप यह लिंक अवश्य पढ़ें. स्केच तथा फोटुएं भी यहीं देखने को मिलेंगी.

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

अश्वेत शरीर में श्वेतात्मा है ओबामा!

समारोह के पहले जिस तरह वहाँ के ताकतवर लोगों को प्रस्तुत किया गया वह पूरी दुनिया को धमकाने की अमेरिकी अदा है. जान लेना होगा कि ओबामा के आ जाने से पूंजीवाद और पश्चिमी तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद का आधुनिक मुखौटा 'बाज़ारवाद' का चेहरा नहीं बदल जाएगा. ओबामा अश्वेत शरीर में श्वेतात्मा है. भाषण देने और लिखवाने में वह रिपब्लिकन जॉन मकैन से अव्वल रहे. जीत-हार की यही असलियत और अन्तर है. शपथग्रहण के वक्त भी ओबामा का भाषण शानदार रहा. वह अमेरिकी जनता को धोखा दे सकते हैं दुनिया को नहीं. लोगों को मुगालता हो हमें नहीं है


दुनिया और भारत की मजलूम जनता को बधाई हो! अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का शपथग्रहण समारोह संपन्न हो गया है. टीवी चैनलों के माइकों के जरिए ऊह-कू और ऊह-पू की समवेत ध्वनियाँ सारी दुनिया में नाद कर रही हैं. करीब ७५० करोड़ डॉलर इस समारोह में ख़र्च किए गए है; आख़िर किसलिए? क्या यह दिखाने के लिए कि हमारे यहाँ मंदी है लेकिन हम अब भी पैसा पानी की तरह बहा सकते हैं! आख़िर यह जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा नहीं तो क्या अमेरिकी माफिया का धन है? मैं अर्थशास्त्री तो नहीं लेकिन मुझे मंदी की इस चाल में भी अमेरिका की कोई गहरी राजनीति लगती है. अमेरिकी जनता का एक हिस्सा तो इसी पर लट्टू है कि एक अश्वेत व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया. हमें भी इस ख़बर से ख़ास नुकसान नहीं है लेकिन आप तक वे खबरें कभी नहीं आने दी जाएँगी कि प्रतिरोध की अमेरिकी आवाजें ओबामा के बारे में क्या सोचती-समझती और कहती रही हैं! माफ़ कीजिएगा, वहाँ भारतीय मीडिया की तरह भूसा-खाता नहीं है!


'चेंज' के आवाहन पर जीत कर आने वाले ओबामा ने कभी यह नहीं कहा कि वह मेहनतकशों का जीवन सुधारेंगे अथवा अमेरिका के सदियों से दबे-कुचले अश्वेत लोगों को नौकरियों में प्राथमिकता देंगे या दुनिया के मजलूमों के लिए कोई वैश्विक अर्थनीति प्रस्तुत करेंगे. अलबत्ता उन्होंने एक असंतुष्ट अमेरिकी वर्ग को यह समझाकर कि बेरोजगारी दूर करने के लिए आउटसोर्सिंग बंद कर देंगे, एक झांसा दिया है. पाक के ख़िलाफ़ एक सांकेतिक बयान देकर भारतीय मूल के मतदाताओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया. यह भी समझ लेना चाहिए कि माइकल या जेनेट जैक्सन तथा हॉलीवुड में चंद अश्वेतों की सफलताओं से अमेरिका के अश्वेतों के बारे में कोई राय बना लेना भ्रामक होगा.

बहरहाल, जिस तरह शपथग्रहण से पहले जिन जीवित पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों जिमी कार्टर, सीनियर बुश तथा बिल क्लिंटन और अब जूनियर बुश को भी मिला लें तो, अमेरिकी जनता और टीवी-इन्टरनेट के जरिए पूरी दुनिया के सामने पेश किया गया उनके काले कारनामे सिर्फ़ एशिया महाद्वीप में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर द्वीप में दर्ज़ हैं. अखबारों में छपने के बाद सीएनएन और बीबीसी तथा चंद भारतीय न्यूज चैनलों के एंकर यह इतिहास बताना नहीं भूले कि कैपिटल हिल तथा व्हाइट हाउस अश्वेत दासों की मेहनत से बने थे और आज कैसा महान क्षण आया है कि एक अश्वेत उसी कैपिटल हिल में शपथ लेगा तथा उसी व्हाइट हाउस में निवास करते हुए दुनिया का भाग्य विधाता बनेगा


लेकिन इनसे काफी पहले के अमेरिकी राष्ट्रपतियों की करतूतों पर नजर डालने वाला यह आलेख मैने काफी अहले 'आज़ाद लब' में प्रस्तुत किया था. आज फिर दे रहा हूँ. लेकिन उससे पहले एक बात- अगर ओबामा का भाषण-लेखक आधुनिक हिन्दी कविता पढ़ लेता तो उसे अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती. उनमें कहीं ज़्यादा उथली, करिश्माई और हवाई बातें होती हैं. एक बात और, जब वो बुजुर्ग पादरी ओबामा के लिए ईशप्रार्थना करते हुए कैपिटल हिल पर लगभग रो रहा था तब मुझे कामू के उपन्यास 'ला स्ट्रेंजर' के उस पादरी की याद आ गयी जो नायक को मृत्यु की सज़ा पा जाने के बाद जेल की कोठरी में ईश्वर पर भरोसा दिलाने के लिए आया करता था.) अब कृपया वह लेख पढ़िए जिसका सम्बन्ध पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों से है. लिंक ये रहा-

'आज़ाद लब'

धन्यवाद!

शनिवार, 17 जनवरी 2009

देख के दिल कै जाँ से उठ रहेला है?

कई बातें कह दूँगा! अव्वल तो कबाड़खाना में शिरीष जी की प्रस्तुत पोस्ट का ये शेर-

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहां कि गुम कीजे, हमने मुद्दआ पाया

खालिस रोमांटिक शेर है. लेकिन दिक्कत यह है कि गालिब इतना चतुर था कि एक तीर से हज़ार शिकार किया करता था. ग़ालिब उपर्युक्त शेर में भी मोहब्बत की इन्तेहाँ पर है. जैसे कि तब, जब वह यह कहता है-

जहाँ तेरा नक्श-ए-क़दम देखते हैं,
खयाबाँ-खयाबाँ इरम देखते है.

अब रामनाथ सुमन जी के बयान की बात. मैं उनके बखान से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता. क्योंकि ग़ालिब का इस शेर में कहने का मतलब वह नहीं है जो सुमन जी तजवीज करते हैं. ग़ालिब महबूबा के लिए अपना दिल खोल कर दिखाने से सम्बंधित दसियों अश'आर में अलग-अलग तरीकों से कहता आया है.

बहरहाल, शिरीष के 'कबाड़खाना' में ऊपर दिए गए शेर में दरअसल ग़ालिब कह रहा है कि दिल अब मेरे पास है ही कहाँ कि उसके गुल होने का ग़म किया जा सके. यानी वह तो महबूबा के पास पहले से है. लेकिन ऐसे अधिकांश मामलों में ग़ालिब के अश'आर से यह जाहिर होता है कि वह अपनी तरफ़ से यह मान कर चलता है कि महबूबा बेवफ़ा है. यह ग़ालिब की सबसे बड़ी कमजोरी लगती है! आप दीवान-ए-ग़ालिब तलाश लीजिए. इन मामलों में वह महबूबा का उजला पक्ष सामने नहीं रखता. कोई दानिश्वर अगर मेरी इस कमअकली को दुरुस्त कर दे तो मैं सुकून पाऊँ.

'हमने मुद्द'आ पाया' कहकर वह तंज़ कर रहा है कि महबूबा को मालूम है कि दिल उसके ही पास है लेकिन संगदिल कितनी सरकश है कि गोया मेरी मोहब्बत के उस उरूज को, जिसमें मैंने यहाँ तक कह दिया कि 'जाहिर हुआ के दाग़ का सरमाया दूद था' , यह बात उड़ाकर कि महबूबा ने यकीनन दिल पड़ा पाया है, वैसी ही हरकत की है जैसी पत्थरदिल सनम किया करते हैं. हालांकि ग़ालिब के मन में कहीं हिकारत का भाव नहीं है. यह कमाल है! लेकिन ग़ालिब ऐसा क्यों करता था यह पहले इतिहासकारों और मनोवैज्ञानिकों को अध्ययन करना चाहिए.

Please note- (यह संपादित पोस्ट है. पिछली पोस्ट में कई चीज़ें गड्डमड्ड हो गयी थीं).

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

महिलाओं की सच्ची की जय हो!

यह न समझिए कि महिलाओं की कोई जय-पराजय झूठ-मूठ हो सकती है. इससे ज्यादा अहंवादी पुरुषों के परनाले आज भी खुले हुए हैं. अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं. तथाकथित 'नारी आन्दोलन' एक अलग तरह की व्यवस्था है. लोग इसे माने या न माने लेकिन एक अद्भुत प्यार मोहल्‍ला में माताओं-बहनों का देखा गया है! मुगालता ये हो सकता है कि मैंने एक विषय उठाया. टिप्पणियाँ वहाँ पहले पहल कमाल की आयीं! लेकिन इससे ये भी जाहिर होता है कि ब्लॉग जगत की महत्वपूर्ण महिलाएँ सिर्फ़ और सिर्फ़ परीपैकर बनकर नहीं रहना चाहतीं. वे साफ-सुथरा विचार-विमर्श चाहती हैं.
उनकी इस पहल का शुक्रिया!

...और जी पहले पहल माताओं-बहनों की इतनी टिप्पणियाँ किसी मोहल्ले में हो जाएँ तो ये समझना चाइये कि वे कुछ सार्थक चाहती हैं. वरना तो जी झाड़ू आन्दोलन चलेगा!


चंद शुरुआती प्रतिक्रियाएँ देखिए-

Nirmla Kapila said...
aapane bilkul sahi aavaaj uthaai hai main aapse poori tarah sehmat hoon

January 15, 2009 4:14 PM


Mired Mirage said...
यदि लोग इनके समाचारों में साहित्य के बारे में सुनते सुनते साहित्य में रुचि लेने लग गए तो फिर टी वी से चिपके कैसे रह पाएँगे?

January 15, 2009 4:26 PM


Dipti said...
मुझे नहीं लगता कि ये हालत महज न्यूज़ चैनलों की हैं। कई ऐसे न्यूज़ पेपर भी इस लिस्ट में शामिल हैं जो पहले तो व्यंग या कहानी का कॉलम निकालते हैं, लेकिन कुछ दिनों में ही उसकी जगह भविष्य और व्यक्तिगत समस्याओं का कॉलम शुरु कर देते हैं। ये सब टीआरपी का खेल है और कुछ नहीं...

January 15, 2009 5:40 PM


sareetha said...
भारतीय संस्क्रति को तहस नहस करने की साज़िश है । देश का साहित्य कहीं ना कहीं देशी महक लिए होगा , जो संभव है उपभोक्तावाद के खिलाफ़ जाए । बाज़ार इसकी इजाज़त नहीं देता ।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

हम ने यह माना, कि दिल्ली में रहें खाएंगे क्या

उर्दू में व्यंग्य का उद्गम तलाशने की सलाहियत मुझमें नहीं है. लेकिन शायरी में व्यंग्य की छटा मीर, ज़ौक, ग़ालिब, सौदा, मोमिन जैसे पुरानी पीढ़ी के शायरों ने जगह-जगह बिखेरी है. मुझे ग़ालिब की एक पूरी की पूरी ग़ज़ल ध्यान में आती है जिसका हर शेर करुणा, आत्मदया और व्यंग्य के उत्कृष्ट स्वरूप में मौजूद है. आप भी गौर फ़रमाइए-



दोस्त ग़मख्वारी में मेरी, स'इ फ़रमाएंगे क्या
ज़ख्म के भरने तलक, नाखुन न बढ़ जाएंगे क्या

बेनियाज़ी हद से गुज़री, बंद: परवर कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमाएंगे क्या

हज़रत-ए-नासेह गर आएं, दीद:-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझको यह तो समझा दो, कि समझाएँगे क्या

आज वाँ तेग़-ओ-कफ़न बांधे हुए जाता हूँ मैं
'उज़्र मेरा क़त्ल करने में वह अब लाएंगे क्या

गर किया नासेह ने हमको क़ैद, अच्छा यूँ सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जायेंगे क्या

खान: ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दाँ से घबराएँगे क्या

है अब इस मा'मूरे में केह्त-ए-ग़म-ए-उल्फ़त, असद
हम ने यह माना, कि दिल्ली में रहें खाएंगे क्या

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...